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भारत मे ब्रिटिश राज का आर्थिक प्रभाव S.K Pandey Aadhunik Bharat Book Notes in Hindi
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भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण
(i) वाणिज्यिक पूँजीवाद का चरण (1757-1813 ई०)
(ii) औद्योगिक पूँजीवाद का चरण (1813-1857 ई०)
(iii) वित्तीय पूँजीवाद का चरण (1858 से 1947 ई०)
उपनिवेशवाद की ये तीनों अवस्थाएं शोषण के विभिन्न रूपों से सम्बन्धित है।
उपनिवेशवाद का प्रथम चरण : वाणिज्यिक पूंजीवाद (1757-1813)
- 1757 में ‘प्लासी युद्ध’ के बाद इंग्लैंड की ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ ने बंगाल पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया। यहीं से भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की शुरुआत मानी जाती है।
- उपनिवेशवाद के प्रथम चरण में ब्रिटिश कंपनी का पूरा ध्यान आर्थिक लूट पर ही केंद्रित रहा।
- इस चरण में ब्रिटिशों के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-
- भारत के व्यापार पर एकाधिकार करना।
- सत्ता पर नियंत्रण स्थापित कर राजस्व प्राप्त करना।
- कम-से-कम मूल्यों पर वस्तुओं को खरीद कर यूरोप में उन्हें अधिक-से-अधिक मूल्यों पर बेचना।
- अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों को हरसंभव तरीके से बाहर निकालना।
- कंपनी द्वारा बंगाल से प्राप्त राजस्व से भारतीय वस्तुओं को खरीद कर उसको यूरोप में निर्यात कर मुनाफा कमाना
- इसके माध्यम से अब भारतीय वस्तुओं को खरीदने के लिये इंग्लैंड से धन लाने की आवश्यकता नहीं रही।
- उपनिवेशवाद के प्रथम चरण में कंपनी का एकमात्र उद्देश्य किसी तरह यहाँ से धन को लूटना था।
- प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार पर्सिवल स्पीयर ने कहा – “अब बंगाल में खुली तथा बेशर्म लूट का काल आरंभ हुआ।”
- प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार के.एम. पणिक्कर ने 1765 से 1772 के काल को ‘डाकू राज्य’ कहा है।
उपनिवेशवाद का द्वितीय चरण : औद्योगिक पूंजीवाद (1813-1857)
- द्वितीय चरण की शुरुआत 1813 के चार्टर एक्ट से होती है।
- इस एक्ट से चाय और चीन से व्यापार को छोड़कर कंपनी का भारतीय क्षेत्र से व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया।
- प्रत्येक ब्रिटिश व्यापारी के लिये भारत का दरवाजा खोल दिया गया।
- जब भारत की लूट से इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति (1750-60 दशक) शुरू हुई तब उसके बाद कई समस्यायें उठ खड़ी हुईं।
- इनमें से एक समस्या थी-कारखानों में बने ढेरों माल के लिए बाजार खोलने की।
- सस्ती लागत पर उत्पन्न यहाँ के कपड़ों को भारतीय बाजारों में बिखेर दिया गया। ये कपड़े मिल में तैयार हुए थे, इसलिए हाथ से बने भारतीय कपड़ों से सस्ते थे।
- परिणामस्वरूप अंग्रेजी कपड़ों की प्रतियोगिता में भारतीय कपड़े ठहर नहीं सके। इस तरह भारतीय वस्त्र उद्योग का पतन हुआ।
- आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन लाने के लिए सर्वप्रथम भूमि व्यवस्था में प्रयोग करना शुरू कर दिए। जैसे – स्थाई बंदोबस्त, रैयतवाड़ी व्यवस्था।
- खाद्यान्न फसलों की जगह वाणिज्यिक फसलों (अफीम, नील,कपास,चाय,जूट, कॉफी)को अधिक उगाया जाने लगा। इससे देश में अनाज की कमी हुई और खाद्यान्न की कमी से मूल्य में वृद्धि।
- भारत में कच्चे माल के निर्यात में वृद्धि
- ब्रिटेन से सूती कपड़े के आयात में वृद्धि
- रेलवे का विकास – भारत से कच्चे माल को निर्यात और ब्रिटिश के उत्पादित माल को आयात करने के लिए।
- [1]यूरोपीय कंपनी का आगमन S.K pandey Aadhunik Bharat Book Notes in Hindi
- [2]मुगल साम्राज्य का पतन और विघटन S.K Pandey Aadhunik Bharat Book Notes in Hindi
- [4]मराठा साम्राज्य S.K Pandey Aadhunik Bharat Book Notes in Hindi
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उपनिवेशवाद का तृतीय चरण – वित्तीय पूंजीवाद (1858-1947 ई०)
- भारत जैसे उपनिवेशों से ब्रिटेन के व्यापारियों ने अत्यधिक धन कमाया जिससे ब्रिटेन के व्यापारियों को अत्यधिक पूंजी का सृजन हुआ।
- पूंजी से और धन बनाने के लिए ब्रिटेन को निवेश करने की आवश्यकता हुई।
- चूंकि यूरोप में औद्योगिकरण हो चुका है और श्रमिक जागरूक और संगठित है ।
- इसलिए ब्रिटेन ने भारत में निवेश करना उचित समझा क्योंकि यहाँ सस्ता श्रम और उचित परिस्थितियाँ थी।
- ब्रिटिश ने भारत में ऐसे क्षेत्र मे निवेश किया जो ब्रिटेन के लिए प्रतिस्पर्धा न खड़ा करे। जैसे सूती वस्त्र में निवेश नहीं किया।
- इन्होंने रेलवे, बागान ( काफी, रबड़, चाय, अफीम आदि), सिचाई, बैंकिंग व्यवस्था और बीमा क्षेत्र में निवेश किया।
- ब्रिटिश ने सार्वजनिक ऋण के रूप मे भारत में निवेश किया।
सार्वजनिक ऋण का अर्थ है कि भारत सरकार को ब्याज के साथ ऋण चुकाना होगा। - इस प्रकार इस चरण में भी भारतीयो का शोषण हुआ और धन का बहिर्गमन हुआ ।
भू – राजस्व व्यवस्था
ब्रिटिश कंपनी ने भारतीयों से भू राजस्व वसूलने के लिए चार व्यवस्थाएं प्रयोग की –
- इजारेदारी व्यवस्था
- स्थायी बंदोबस्त
- रैय्यतवाड़ी व्यवस्था
- महालवाड़ी व्यवस्था
इजारेदारी व्यवस्था
- भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विस्तार के लिए कंपनी को अत्यधिक धन की जरूरत थी। कच्चे माल की खरीददारी, सिविल तथा सैनिक अधिकारियों के वेतन तथा भारतीय ग्रामों व दूरदराज के क्षेत्रों में अधिकार के लिये कंपनी को भारतीय राजस्व की आवश्यकता थी, जिसका प्रमुख स्रोत भू-राजस्व था।
- 1757 ई. के प्लासी के युद्ध की सफलता के बाद कम्पनी को बंगाल के नवाब मीरजाफर से कुछ इलाके प्राप्त हुए थे – वर्धमान, मिदनापुर, चटगाँव । इन क्षेत्रो से कंपनी इजारेदारी व्यवस्था ( ठेके द्वारा )के द्वारा राजस्व वसूल करती थी।
- 1764 ई. के बक्सर के युद्ध को जीतने के बाद कम्पनी को 1765 ई. की इलाहाबाद की संधि से मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दिवानी प्राप्त हुई।
- क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन लागू किया। – 1765 से 1772 ई. तक चलती रही।
- बंगाल में राजस्व वसूलने के लिए दीवान की नियुक्ति की गई।
बंगाल – मोहम्मद रज़ा खा
बिहार – शिताब राय
उड़ीसा – रायदुर्लभ
- इन तीनो क्षेत्रों में भी इजारेदारी प्रणाली द्वारा राजस्व एकत्रित किया गया।
- बाद में लगान वसूली में व्यापक भ्रष्टाचार बड़ा – उल्लेख फर्मईयर रिपोर्ट।
- 1772 ई . में वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल में द्वैध शासन को खत्म कर दिया ।
- यह तय किया कि वे खुद दीवान का कार्य करेंगे।
- 1772 ई में पंचवर्षीय इजारेदारी व्यवस्था शुरू की गई। इसमें नीलामी में सबसे अधिक बोली लगाने वाले व्यक्ति को भू राजस्व वसूलने का ठेका दिया जाता था।
- 1776- 77 ई. में एक वर्षीय / सलाना इजारेदारी व्यवस्था कर
दी। ठेकेदारी 1 वर्ष के लिए। - 1786 ई. में रेवेन्यू बोर्ड की स्थापना की गई ।
- इस इजारेदारी व्यवस्था की समाप्ति 1793 ई. में स्थायी बन्दोबस्त से हुई।
स्थायी बंदोबस्त / जमींदारी व्यवस्था

- 1790 में कॉर्नवालिस ने एक 10 वर्षीय भू-राजस्व व्यवस्था लागू की।
- भूमि का स्वामी तथा लगान वसूली का अधिकारी जमींदार को ही माना गया।
- 1793 में कॉनवालिस ने 10 वर्षीय व्यवस्था को बदलकर स्थायी कर दिया।
- लगान वसूली का विभाजन – 10/11 भाग सरकार का तथा शेष 1/11 भाग जमींदारों के लिए ।
- 1794 में ‘सूर्यास्त का नियम’ लागू। नियत समय तक यदि सरकार के पास लगान या राजस्व नहीं पहुँचा तो जमींदार की ज़मींदारी नीलाम कर दी जाएगी।
- यह व्यवस्था भारत के 19 प्रतिशत भाग पर लागू ।
- बंगाल, बिहार, उड़ीसा के अतिरिक्त बनारस व उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्र शामिल थे।
रैव्यतवाड़ी व्यवस्था

- प्रत्येक भूमिदार को भूमि का स्वामी माना गया और लगान जमा करने का दायित्व भी किसानों को ही दिया गया।
- रैव्यतवाड़ी व्यवस्था का जन्मदाता टॉमस मुनरों और कैप्टन अलेक्जेंडर रीड को माना जाता है।
- 1792 में रैय्यतवाड़ी व्यवस्था बारामहल जिले में पहली बार कैप्टन रीड द्वारा लागू की गई।
- 1820 में इस व्यवस्था को मद्रास में लागू किया गया। यहाँ इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये मुनरो को मद्रास प्रेसिडेंसी का गवर्नर (1820-27) नियुक्त किया गया।
- 1825 में यह व्यवस्था बंबई तथा 1858 तक यह संपूर्ण दक्कन और अन्य क्षेत्रों में लागू हो गई।
- इस व्यवस्था के अंतर्गत ब्रिटिश भू-भाग का 51 प्रतिशत हिस्सा शामिल था।
- यह व्यवस्था मद्रास, बंबई के कुछ हिस्से, असम व कुर्ग आदि क्षेत्रों पर भी लागू थी।
- यह 30 वर्षों के लिये लागू की गई और इसकी दर 1/2 निश्चित की गई।
- यह व्यवस्था स्थायी नहीं थी । प्रत्येक 30 वर्षों में लगान का पुनर्निर्धारण किया जाता था।
महालवाड़ी व्यवस्था

- ‘महाल’ का तात्पर्य है-गाँव।
- इस व्यवस्था के अंतर्गत गाँव का मुखिया गाँव के किसानों से लगान वसूल करके सरकार को देता था।
- इस व्यवस्था का जनक ‘हॉल्ट मैकेंजी’ को माना जाता है।
- मैकेंजी ने 1819 के अपने प्रतिवेदन में महालवाड़ी व्यवस्था का सूत्रपात किया।
- सर्वप्रथम 1822 में कानूनी रूप से लागू किया गया।
- इस व्यवस्था में पहली बार लगान तय करने के लिए मानचित्रों तथा पंजियों का प्रयोग किया गया।
- मार्टिन बर्ड को उत्तर भारत की भूमिकर व्यवस्था का प्रवर्तक माना जाता है।
- यह व्यवस्था मध्य प्रांत, गंगा घाटी, उत्तर प्रदेश (आगरा, अवध) एवं पंजाब में लागू की गई ।
- इस व्यवस्था के अंतर्गत ब्रिटिश भारत की भूमि का 30 प्रतिशत भाग सम्मिलित था।
आधुनिक वस्त्र उद्योग
- सर्वप्रथम 1818 ई० में कलकत्ता में एक मिल की स्थापना की गई। लेकिन यह असफल रही।
- बम्बई में पारसी कावसजी नानाभाई दामार ने 1853 ई० में सूती वस्त्र का पहला कारखाना स्थापित किया।
- जे० एन० टाटा ने 1877 ई० में एम्प्रेस मिल नागपुर में प्रारम्भ किया।
- 1914 ई. तक भारत सूती वस्त्र उत्पादन के क्षेत्र में विश्व में चौथे स्थान पर आ गया।
जूट या पटसन उद्योग
- 1855 ई० में – भारत में पहला जूट कारखाना सेरामपुर (बंगाल) के निकट रिशरा में शुरू किया गया।
- सर्वप्रथम, 1918 ई० में एक लिमिटेड कम्पनी के रूप में बिड़ला ब्रदर्स की स्थापना हुई और
- 1919 ई० में बिड़ला जूट कम्पनी की स्थापना ।
लोहा-इस्पात उद्योग
- सर्वप्रथम, जमशेद जी टाटा के पुत्र जे० एन० टाटा ने 1907 ई० में जमशेदपुर (बिहार) में TISCO की स्थापना की।
- इसमें 1911 ई० में पिग आयरन और 1912 ई० में स्टील का उत्पादन किया जा सका।
- इसके बाद मैसूर में भद्रावती एवं बंगाल में भी स्टील कम्पनियाँ स्थापित की गईं।