सामाजिक क्रिया
समाजशास्त्र में क्रिया का अर्थ किसी उद्देश्यपूर्ण व्यवहार से लगाया जाता है। वेबर के अनुसार क्रिया में वह सारा व्यवहार आ जाता है जिसको क्रियारत व्यक्ति (कर्ता) व्यक्तिनिष्ठ (Subjective) अर्थ में सम्बन्धित करता है। इस अर्थ में क्रिया बाहरी भी हो सकती है तथा आन्तरिक या चेतना सम्बन्धी भी। यह किसी परिस्थिति मे सकारात्मक रूप में दखल देने अथवा जानबूझकर उस परिस्थिति से दूर रहने के रूप में हो सकती है।
वेबर के अनुसार, “ किसी क्रिया को सामाजिक क्रिया तभी कहा जा सकता है, जबकि उस क्रिया को करने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों के द्वारा लगाए गए सहानुभूतिमूलक अथवा आत्मपरक अर्थ के कारण यह क्रिया दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार द्वारा प्रभावित हो और उसी के अनुसार उसकी गतिविधि निर्धारित हो।
वेबर के क्रिया तथा सामाजिक क्रिया के बारे में विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी क्रियाएँ सामाजिक नहीं हैं । वेबर के अनुसार कोई भी क्रिया तभी सामाजिक कही जा सकती है यदि वह अन्य व्यक्तियों अथवा उनकी क्रियाओं से सम्बन्धित है। किसी भी क्रिया को सामाजिक क्रिया तभी कहा जाएगा, जबकि उसमें निम्नांकित विशेषताएँ पाई जाती है-
(1) कोई भी क्रिया तभी सामाजिक कही जाएगी, जबकि वह अन्य व्यक्तियों की क्रियाओं व व्यवहार से सम्बन्धित हैं।
(2) प्रत्येक बाह्य क्रिया अथवा प्रत्यक्ष क्रिया (Overt action) को सामाजिक नहीं कहा जा सकता यदि वह पूर्ण रूप से अचेतन वस्तु से सम्बन्धित है।
(3) व्यक्तियों का प्रत्येक प्रकार का सम्पर्क भी सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता यदि वे अर्थपूर्ण रूप से सम्बन्धित नहीं है। उदाहरणार्थ-भीड़ को देखकर राह चलने वाले राहगीरों का रुक जाना सामाजिक क्रिया नहीं है क्योंकि इसमें व्यक्ति अर्थपूर्ण दृष्टि से सम्बन्धित नहीं हैं।
(4) सामाजिक क्रिया को प्रभावित करने वाला व्यवहार भूतकाल, वर्तमानकाल या भविष्यत्काल से सम्बन्धित हो सकता है। हमारा सम्पूर्ण व्यवहार केवल वर्तमान क्रियाओं अथवा व्यवहारों से प्रभावित नहीं होता, अपितु भूतकाल के व्यवहार से भी प्रभावित होता है
वेबर द्वारा प्रतिपादित’ सामाजिक क्रिया ‘ की अवधारणा बहुत स्पष्ट, गहन और सूक्ष्म है। सर्वप्रथम, उन्होंने स्पष्ट किया कि समाजषास्त्र’ मानव-क्रियाओं से सम्बन्धित है, प्राकृतिक क्रियाओं अथवा पशु-पक्षियों की क्रियाओं से नहीं। दूसरे, उन्होंने यह भी बताया कि ‘ मानव क्रिया से यहाँ आशय मानव के उस आचरण से है जिसे वह व्यक्तिनिष्ठ या आत्मपरक अर्थ (Subjective meaning) प्रदान करता है। इसका मतलब यह है कि मानव कुछ ऐसी क्रियाएँ भी कर सकता है या करता है जिनका कुछ अर्थ नहीं होता; जैसे कोई व्यक्ति बैठे-बैठे टाँगें हिला रहा है या अपने बालों में उँगलियाँ घुमा रहा है, यह सब वह अचेतन रूप से कर रहा है, उसे आभास भी नहीं कि वह ऐसा कर रहा है। व्यक्ति शरीर का संचालन तो कर रहा है, हरकत तो कर रहा है, परन्तु उसकी यह क्रिया मानव क्रिया नहीं कही जाएगी क्योंकि ऐसा वह किसी प्रयोजन, उद्देश्य या अर्थ से नहीं कर रहा है। ऐसी अर्थविहीन अथवा निरर्थक क्रियाएँ समाज विज्ञानों की रुचि का विषय नहीं है इसलिए। वही क्रियाएँ मानवीय क्रियाओं की श्रेणी में रखी जाएँगी जो कर्ता की अपनी दृष्टि में अर्थपूर्ण हैं इसे ही वेबर ने’ आत्मपरक अर्थ ‘ कहा है तीसरे, मानव की सभी आत्मपरक ,अर्थ-भरी क्रियाएँ भी समाजशास्त्र के अध्ययन-क्षेत्र में शामिल नहीं की जाती। समाजशास्त्र की रुचि मानव की केवल उन म अर्थपूर्ण क्रियाओं तक ही सीमित है जो वह किसी अन्य व्यक्ति या समूह की किसी क्रिया को ध्यान में रखकर या उससे प्रभावित होकर करता है ऐसी क्रियाओं को ही वेबर ने सामाजिक क्रिया कहा है।
इस भाँति, हम कह सकते हैं कि वेबर के अनुसार सामाजिक क्रिया किसी व्यक्ति या समूह की वह अर्थपूर्ण क्रिया है जो वह किसी अन्य व्यक्ति या समूह की किसी क्रिया को ध्यान में रखकर करता है।
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मैक्स वेबर की सामाजिक क्रियाओं के प्रकार
मैक्स वेबर ने सामाजिक क्रियाओं को, उनके प्रेरक उन्मेष (Orientation) के ढंग के आधार पर, चार श्रेणियों में बाँटा है। वे चार प्रकार निम्नलिखित हैं-
(1) परम्परागत सामाजिक क्रियाएँ
इसके अन्तर्गत मनुष्यों के उन व्यवहारों को सम्मिलित किया जा सकता है जो प्राचीनकाल से चली आ रही परम्पराओं, प्रथाओं, विचारों तथा प्रतिमानों द्वारा संचालित होती हैं। उदाहरण के लिए हमारा एक-दूसरे से मिलते ही अभिवादन करना या हाल-चाल पूछना परम्परागत व्यवहार है। वास्तव में, दैनिक जीवन में अधिकांश क्रियाएँ इसी श्रेणी की होती है। हम परम्पराओं के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि हमें पता नहीं चलता कि हम रीति-रिवाज का पालन कर रहे हैं।
(2) भावात्मक सामाजिक क्रियाएँ
इस श्रेणी की क्रियाओं का सम्बन्ध व्यक्ति की भावात्मक दशाओं से होता है, न कि साधन साध्य के तार्किक मूल्यांकन से दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि यदि कोई व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के व्यवहार से प्रभावित होकर भावनाओं और संवेगों के रूप में कोई क्रिया करता है तो उसे भावात्मक क्रिया कहेंगे। ये वे सामाजि हैं जो व्यक्ति या समूह भावावेश में करते हैं। भावात्मक तनाव से मुक्ति प्राप्त करना ही यहाँ कर्ता का उद्देश्य होता हैं। प्रेम, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि से प्रभावित व्यक्ति ऐसा व्यवहार भी कर बैठता है जो वह अपनी शान्त मानसिक अवस्था में कभी नहीं करता।
(3) मूल्यात्मक सामाजिक क्रियाएँ
मूल्यों से सम्बन्धित क्रियाओं को मूल्यात्मक क्रियाएँ कहा जाता है। धार्मिक अथवा दैनिक प्रतिमानों एवं मूल्यों के अनुसार व्यक्ति से जिस प्रकार के व्यवहार की आशा दूसरे व्यक्तियों द्वारा की जाती है उस प्रकार का व्यवहार करना मूल्यात्मक व्यवहार कहलाता है। इस प्रकार की क्रिया का सम्बन्ध वास्तव में उन साध्यों तक पहुँचना है जो तार्किक नहीं है यद्यपि उन्हें प्राप्त करने के लिए तार्किक साधनों का प्रयोग किया जाता है। सामाजिक मूल्य वे वस्तुएँ या सिद्धान्त हैं जिन्हें समाज अपने अस्तित्व के लिए जरूरी समझता है और जिनकी रक्षा हेतु बड़े-से-बड़ा बलिदान देने को तत्पर हो जाता है; जैसे-हमारे समाज में नारी की यौन-शुचिता, सतीत्व, मातृभूमि, हिन्दुओं की मूर्ति आदि। निरपेक्ष मूल्यों में व्यक्ति का विश्वास होता है, वह इनकी वांछनीयता में यकीन करता है। इसलिए वह इन्हें तर्कपूर्ण ओर उचित भी समझता है।
(4) बौद्धिक सामाजिक क्रियाएँ
साध्य एवं साधनों को दृष्टिगत रखते हुए व्यक्ति द्वारा निश्चित योजना के अनुसार की जाने वाली क्रियाएँ बौद्धिक सामाजिक क्रियाएँ कही जाती हैं इन क्रियाओं का सम्बन्ध साधन और साध्य के तार्किक चयन से होता है अधिकतर व्यापारिक क्रियाएँ इस श्रेणी में आती हैं। यहाँ व्यक्ति क्रिया करने से पहले इसमें होने वाले लाभ-हानि का हिसाब लगता है और लाभ या सुख की दृष्टि से कार्य करता है।
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आलोचनात्मक मूल्यांकन
वेबर के इस सिद्धांत या विचार की कई आलोचनाएं की गई हैं . जैसे वेबर ने सामाजिक क्रिया की अवधारणा को एक अमूर्त अवधारणा के रूप में प्रस्तुत किया है , जिसमें उसने कर्ता के दृष्टिकोण को प्रमुखता दी है । ऐसी स्थिति में सामाजिक क्रिया का वस्तुनिष्ठ अध्ययन कर पाना कठिन हो जाता है । साथ ही , वेबर द्वारा बताये गये व्यक्तिनिष्ठ अर्थ को स्पष्ट करना और वस्तुनिष्ठ पक्ष की उपेक्षा करना उसके सामाजिक क्रिया की अवधारणा को एकांगी बना देता है । इस संदर्भ में डेविड ली और हॉवर्ड निवार्ड ने वेबर पर पद्धतिशास्त्रीय व्यक्तिवादी होने का आरोप लगाया है और कहा है कि वेबर ने व्यक्ति की क्रियाओं के निर्धारण में समाज की अन्य शक्तियों की उपेक्षा की है और उसके वैयक्तिक पक्ष पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है । कोहेन तथा मर्टन का मानना है कि वेबर की सामाजिक क्रिया का यह विचार सूक्ष्म समाजशास्त्र तक ही सीमित है और बृहद् समाजशास्त्र के संदर्भ में समाजशास्त्रीय विश्लेषण कर पाने में यह असमर्थ है । आलोचकों के अनुसार वेबर ने सामाजिक क्रिया के वर्गीकरण को जिस तरह से समझाया है वह अपने आप में पूर्ण नहीं है क्योंकि व्यक्ति की मूलभूत अभिव्यक्तियां , तर्क , संवेग या भावना या आदत तीन प्रकार की होती हैं । अतः सामाजिक क्रिया भी वास्तविकता की व्याख्या हेतु तीन प्रकार के आदर्श प्रारूप होने चाहिये जबकि वेबर ने इन्हें चार आदर्श प्रारूपों में रखा । आलोचक कहते हैं कि सामाजिक परिवर्तन का विश्लेषण समाजशास्त्रीय विश्लेषण का महत्वपूर्ण पक्ष है । परन्तु , वेबर का सामाजिक क्रिया का यह सिद्धांत सामाजिक परिवर्तन को दर्शाने में सक्षम नहीं है । उपरोक्त आलोचनाएं निश्चित तौर पर वेबर के विचारों में निहित कुछेक कमी को दर्शाती हैं परन्तु , केवल इन आलोचनाओं के बल पर वेबर के इस सिद्धांत को खारिज नहीं किया जा सकता है ।
बेवर के अनुसार सामाजिक विज्ञान का उद्देश्य सामाजिक क्रिया की किस सोच का विकास करना है
Ye sare notes to upsc or UPPSC sociology optional me bahut usefull hai .
Thank you for your valuable comment 😊
Very usefull information
Must read BA and MA and option sociology students
Aapne ache se explain Kiya hai isi trh aur bhi Topic ko uplode kiya kijiye
Gajab 😯😯
Aap ne ye jo post upload kiay hai wo mujhe bahut achha laga hai kripya aise he post ho sake to aur bhi upload kare
Thank you @Aditi
Thank you for appreciation..
Okay.. We'll try..Thank you @Chandan
Okay Sure, I'll upload such posts..Thank you
Hermeneutics
achha analysis hai bhai
Thank you..