मैक्स वेबर – Introduction
जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर को आधुनिक समाजशास्त्र के जनकों में से एक माना जाता है । इनका जन्म 1864 में जर्मनी में उस समय हुआ था जिस समय जर्मनी में एक ओर ऐतिहासिक पद्धति पर जोर दिया जा रहा था तो दूसरी ओर आदर्शवादी विचारधारा काफी जोरों पर थी । जेटलिन(zetlin) का कहना है कि जर्मनी में मार्क्सवाद पूरी तरह छाया हुआ था और मार्क्सवादियों के साथ गहन एवं विस्तृत बातचीत करते – करते मैक्स वेबर अर्थशास्त्री से समाजशास्त्री बन गए । मैक्स वेबर उन प्रारंभिक समाजशास्त्रियों में से एक हैं जिन्होंने सामाजिक घटनाओं के अध्ययन के लिए एक पृथक वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया है । वेबर के अनुसार सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में भी वैज्ञानिक मानदण्ड को बनाये रखना । सम्भव है पर यह तभी हो सकता है जब हम समाजशास्त्रीय अध्ययनों में सभी तरह की घटनाओं का अध्ययन न करके केवल मानवीय संबंधों एवं मानवीय क्रियाओं का ही अध्ययन करें ।
इस संदर्भ में वेबर ने समाजशास्त्र को नए सिरे से परिभाषित करके इसकी अध्ययन की पद्धति को स्पष्ट किया। वेबर के अनुसार समाजशास्त्र वह विज्ञान है , जो सामाजिक क्रिया का व्याख्यात्मक बोध इस तरह कराने का प्रयास करता है जिससे सामाजिक क्रिया संबंधी गतिविधियों एवं परिणामों के कारण संबंधी विवेचना तक पहुंचा जा सके । इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि किसी भी क्रिया को तभी समझा जा सकता है। जब उस क्रिया को करने वाले कर्त्ता द्वारा लगाए गए व्यक्तिनिष्ठ ( subjective ) अर्थ के आधार पर पता लगाया जाए । स्पष्टतः उन्होंने सामाजिक क्रिया को समाजशास्त्र को अध्ययन का मूल विषय – वस्तु माना और इसे समझने के लिए स्वयं कर्त्ता के द्वारा लगाए गए अर्थ को जानने पर बल दिया ।
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मैक्स वेबर का आदर्श प्रारूप
वेबर कालीन यूरोप में समाजशास्त्रीय अध्ययन पद्धति को लेकर मुख्यतया दो विचार प्रचलित थे-प्रथम, प्रत्यक्षवाद जो सामाजिक घटनाओं के प्रत्यक्ष निरीक्षक परीक्षण पर बल देता था तथा द्वितीय, नव आदर्शवाद जो सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण में कर्ता की समझ को महत्व देने की बात करता था।जर्मन समाजशास्त्री वेबर ने प्रत्यक्षवाद को अस्वीकार करते हुए तथा नव-आदर्शवाद से कुछ हद तक सहमत होते हुये समाजशास्त्र को सामाजिक क्रिया का व्याख्यात्मक बोध कराने वाला विज्ञान माना है तथा इसकी अध्ययन पद्धति के रूप में आदर्श प्रारूप को प्रस्तुत किया है।
आदर्श प्रारूप ऐसी संरचनाएं अथवा अवधारणाएं हैं जो सामाजिक यथार्थ के स्पष्टीकरण और व्याख्या के लिये बनाई जाती हैं। जिस तरह प्राकृतिक विज्ञानों में हम प्रयोग के उद्देश्य से प्रयोगशाला में शुद्ध गंधक या शुद्ध व आक्सीजन बना लेते हैं जो प्रकृति में अपने शुद्ध रूप से नहीं भी पाया जाता उसी तरह सामाजिक विज्ञानों में भी विश्लेषण के उद्देश्य से अध्ययन की जाने वाली घटना के शुद्ध रूपों का निर्माण सम्भव है जिसे वेबर ने आदर्श प्रारूप की संज्ञा दी है। इस प्रकार आदर्श प्रारूप उन विशेषताओं का एक पुंज है जो अध्ययन की जाने वाली घटना के अधिकांश प्रकरणों में समुचित मात्रा में पायी जाती है। ये सभी विशेषताएं यथार्थ रूप में किसी एक वास्तविक घटना में नहीं मिलती हैं, परन्तु इन सभी विशेषताओं का उस तरह की सभी वास्तविक घटनाओं में प्रचूर मात्रा में पाया जाना आवश्यक है। आदर्श प्रारूप के अन्तर्गत सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण के उद्देश्य से अनुभवमूलक के निरीक्षण के आधार पर अध्ययन की जाने वाली घटना या विषय का तार्किक रूप से एक काल्पनिक मॉडल तैयार किया जाता है ताकि इससे यथार्थ घटना या विषय की तुलना करके हम उपयुक्त निष्कर्ष निकाल सकें।
वेबर के उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर आदर्श प्रारूप के निम्न लक्षणों की चर्चा की जा सकती है:-
1. आदर्श प्रारूप अध्ययन की जाने वाली घटना के प्रासंगिक एवं अनिवार्य विशेषताओं का पुंज है न कि उस घटना की सामान्य या औसत विशेषता।
2. यद्यपि आदर्श प्रारूप का निर्माण यथार्थ तत्वों के आधार पर ही किया जाता है, परन्तु यह उस यथार्थ के सभी पक्षों को व्यक्त नहीं करते बल्कि उस पूर्ण यथार्थ के आशिक पक्ष को ही व्यक्त करते हैं।
3. आदर्श प्रारूप न तो यथार्थ की किसी निश्चित अवधारणा की व्याख्या करते हैं और न ही कोई परिकल्पना प्रस्तुत करते हैं, परन्तु यथार्थ की व्याख्या एवम् परिकल्पना के निर्माण में यह सहायक होते हैं।
4. आदर्श प्रारूप का सम्बन्ध किसी प्रकार के आदर्श या मूल्यांकन से नहीं है। यहां आदर्श शब्द का अर्थ मॉडल के रूप में शुद्ध प्रारूप से है। समाज वैज्ञानिक विश्लेषण हेतु किसी भी समस्या या घटना को आदर्श प्रारूप बना सकता है चाहे समस्या वेश्याओं से में सम्बन्धित हो चाहे धर्म से।
5. आदर्श प्रारूप तार्किक आधार पर ही शुद्ध प्रारूप होते हैं। अपने इस अवधारणात्मक शुद्ध स्वरूप में यथार्थ कहीं भी नहीं मिलते हैं।
6 आदर्श प्रारूप पूर्व निर्धारित कार्य कारण की व्याख्या नहीं करते हैं। वेबर के अनुसार आदर्श प्रारूप का मुख्य उद्देश्य तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करना होता है।
7. एक आदर्श प्रारूप के द्वारा हर घटना का अध्ययन नहीं किया जा सकता बल्कि हर अध्ययन के समय इसका निर्माण करना पड़ता है और जैसे ही अध्ययन समाप्त हो जाता है उस आदर्श प्रारूप की उपयोगिता भी समाप्त हो जाती है ।
8. वेबर के आदर्श प्रारूप के द्वारा क्या है ‘ का अध्ययन किया जाता है न कि’ क्या होना चाहिए ‘ या’ क्या होता तो अच्छा होता का।
स्पष्ट है वेबर का आदर्श प्रारूप सामाजिक घटनाओं की बहुकारकीय/ तुलनात्मक व्याख्या हेतु एक महत्वपूर्ण पद्धति है जिसका प्रयोग उसने स्वयं अपने सामाजिक क्रिया (लक्ष्य उन्मुख,मूल्य उन्मुख, संवेगात्मक व परम्परागत क्रिया), सत्ता, (तर्क-विधिक, करिश्माई व परम्परागत सत्ता), नौकरशाही, प्रोटेस्टेंट धर्म, आधुनिक पूंजीवाद आदि के अध्ययन में किया है।
वेबर के आदर्श प्रारूप के स्वरूप
वेबर ने अपने आदर्श प्रारूप की पद्धति का प्रयोग तीन विशिष्ट रूपों में किया है :-
पहले प्रकार के आदर्श प्रारूप का आधार विशिष्ट ऐतिहासिक तत्व रहे हैं जैसे प्रोटेस्टेंट नैतिकता का आदर्श प्रारूप। वेबर ने विशिष्ट ऐतिहासिक कालों में विकसित प्रोटेस्टेंट नैतिकता का आदर्श प्रारूप बनाया और इसका प्रयोग पूंजीवाद के विकास की व्याख्या हेतु किया है।
वेबर के आदर्श प्रारूप का दूसरा प्रकार सामाजिक यथार्थ के अमूर्त तत्वों पर आधारित है जो अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदों में पाये जाते हैं। नौकरशाही, सत्ता के प्रकार सामाजिक क्रिया के प्रकार आदि के आदर्श प्रारूप इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
आदर्श प्रारूप का तीसरा प्रकार-ऐसे तथ्यों पर आधारित है जिनके आधार पर किसी व्यवस्था-विशेष की तार्किक पुनर्रचना संभव होती है अर्थात् इसका प्रयोग किसी विशेष परिस्थिति में लोगों के संभावित व्यवहार की व्याख्या हेतु किया जाता है। वेबर के अनुसार, आर्थिक सिद्धांत की मान्यताएं, जैसे-मांग एवं पूर्तिका सिद्धांत आदि इस प्रकार के आदर्श प्रारूप के उदाहरण हैं।
आदर्श प्रारूप का महत्व
आदर्श प्रारूप अध्ययन की पद्धति के रूप में सामाजिक अनुसंधान में कई दृष्टि से उपयोगी माने जाते हैं, जैसे
1. बहुत से शोधकर्ता उन अवधारणाओं से पूरी तरह अवगत नहीं होते, जिनका वे अपने अध्ययन में उपयोग करते है फलतः उनका शोध अस्पष्ट एवं अनिश्चित हो जाता है। आदर्श प्रारूप के प्रयोग से अवधारणा की अस्पष्टता और भ्रम दूर होते हैं तथा विश्लेषण की शुद्धता में वृद्धि होती है।
2 समाज वैज्ञानिकों का दायित्व है कि वे विषय की अस्पष्टता दूर करके इसे बोधगम्य बनाएं। आदर्श प्रारूप से प्रयोग की गयी अवधारणा से अस्पष्टता और भ्रम दूर होते हैं तथा विश्लेषण की शुद्धता में वृद्धि होती है।
3. आदर्श प्रारूप सामान्य निष्कर्षों तक पहुंचने एवं तुलनात्मक विश्लेषण में सहायक होते हैं।
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Amazing write up…
Social demography pe v kuch post dalo
Aapka hi likha padh kr exam pass hua mai ,or mai esa sociology ke students me share kruga
Rural sociology pur kya notes mil sakta hai
Urban poverty post kb tak aaega
Social justice ka post kb tk mil jayega ispr
Sociology ke etne difficult topic ko simple kr ke samjha apne samjha diya mujhe, ab pass ho jaege, ho skta hai top bhi kr jau
Difference between Uarban poverty and rural poverty ka notes kb tak aayaga