समाजशास्त्र 12 वीं क्लास नोट्स UP Board

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 UPBOARD/BIHARBOARD CLASS12TH SOCIOLOGY NOTES

समाजशास्त्र 12 वीं क्लास नोट्स UP Board

      तेलंगाना आंदोलन

तेलंगाना आंदोलन आधुनिक भारत के इतिहास का सबसे बड़ा कृषक गुरिल्ला युद्ध था जिसने 3 हजार गांवो तथा 30 लाख लोगों को प्रभावित किया।

     तेलंगाना क्षेत्र में स्थानीय देशमुखो ने पटेल तथा पटवारियो की मिली भगत से अधिकांश उपजाऊ भूमि पर कब्जा कर लिया तथा अपनी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में पर्याप्त वृद्धि कर ली। इन देशमुखों को स्थानीय प्रशासन एवं पुलिस के साथ ही निजाम की सरकार का भी संरक्षण प्राप्त था।

इन देशमुखों ने किसानों तथा खेतिहार मजदूरों का भरपूर शोषण किया तथा इस क्षेत्र में इनके अत्याचारो की एक बाढ़ सी आ गयी । सामंती दमन तथा जबरन वसूली स्थानीय किसानो के भाग्य की नियति बन गयी।

अपने प्रति किये जा रहे अत्याचारों से तंग आकर किसानों एवं खेतिहर मजदूरों ने शोषकों के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया । कुछ समय पश्चात् स्थानीय कम्युनिस्ट, मझोले कृषक तथा कांग्रेस संगठन भी इस अभियान मे शामिल हो गये । इस आंदोलन में विद्रोहियो ने शोषकों के विरुद्ध गुरिल्ला आक्रमण की नीति अपनायी । युद्ध के  दौरान कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले गुरिल्ला छापामारों नें आन्ध्र महासभा के सहयोग से पूरे तेलंगाना क्षेत्र के गाँवो में अपनी अच्छी पैठ बना ली।

             विद्रोह की शुरुआत जुलाई 1946 में तब हुई जब नालगोंड के जंगांव तालुका में एक देशमुख की गाँव के उग्रवादियों ने हत्या कर दी। शीघ्र ही विद्रोह वारंगल एवं कम्मम मे भी फैल गया। किसानों ने संघम के रूप में संगठित होकर देशमुखो पर आक्रमण प्रारंभ कर दिये । इन्होंने हथियारों के रूप मे लाठियों, पत्थर के टुकड़ो एवं मिर्च के पाउडर का उपयोग किया। किन्तु सरकार ने आंदोलनकारियों के प्रति अत्यन्त निर्दयतापूर्ण रुख अपनाया । अगस्त 1947 से सितम्बर 1948 के मध्य आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। हैदराबाद विलय के संदर्भ में भारतीय सेना ने जब हैदराबाद को विजित कर लिया तो यह आंदोलन अपने आप समाप्त हो गया।

तेलगांना आंदोलन की कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां थी जो इस प्रकार है

1) गुरिल्ला छापामारो ने गाँवो पर नियंत्रण स्थापित कर लिया तथा बेगार प्रथा बिल्कुल समाप्त हो गयी।

2) खेतिहर किसानो की मजदूरियां बढ़ा दी गई ।

3) अवैध रुप से कब्जा की गयी जमीन किसानों को वापस लौटा दी गयी ।

4) महिलाओं की दशा मे उल्लेखनीय सुधार आया ।

5 ) भारत की सबसे बड़ी रियासत से अर्द्धसांमती व्यवस्था का उन्मूलन कर दिया गया।

6 ) आंदोलन ने भाषायी आधार पर  आंध्र प्रदेश के गठन की भूमिका तैयार की ।


तेभागा आन्दोलन ( 1946 47 )

तेभागा आन्दोलन ( 1946 47 ) : भारतीय साम्यवादी पार्टी की बंगाल शाखा ने कलकत्ता में 1936 में ‘ बंगीय प्रदेशिक किसान सभा की स्थापना की थी । इसने अपने प्रथम अधिवेशन में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन , लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना और भूमिहीन किसानों को बिना किसी शर्त के भूमि हस्तान्तरित करने की माँग की । 1936-46 के मध्य इस सभा बंगाल में अनेक कृषि सम्बन्धी आन्दोलनों का संचालन किया जिसमें चौबीस परगना जिले में ‘ खस भूमि के लिए आयोजित आन्दोलन भी शामिल है । ये आन्दोलन बटाईदारों की बेदखली और तरह तरह के उपकरों के खिलाफ थे । लेकिन इस सभा के नेतृत्व में चलाए गए सभी आन्दोलनों में महत्वपूर्ण था तिभागा या तेभाागा आन्दोलन 1943 के भयानक अकाल में बंगाल के पैंतीस लाख लोग काल कवलित हुए थे । अकाल के तीन साल बाद 1946 में तेभागा आन्दोलन शुरु हुआ तेभागा चाई ‘ नारे की मांग थी , अब तक मिलने वाले आधे हिस्से के बजाय पैदावार में जमींदार (Feudal dues ) का हिस्सा 1/3 कर देने की । दूसरे शब्दों में , 1946 के उत्तरार्द्ध में बंगाल के बटाईदारों ( बरगादारों ) ने घोषणा कर दी कि वे अब जोतदारों ( दखीलकार या Occupant ) की उपज का आधा हिस्सा न देकर एक तिहाई हिस्सा देंगे और हिस्सा बँटने तक पैदावर उनके अपने खमारों ( घर से लगे खलिहानों ) में रहेगी ,जोतदारों के खलिहानों में नहीं । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के खेतिहर आन्दोलनों में तेभागा आन्दोलन सबसे व्यापक था जो बंगाल के 19 जिलों में फैला और लगभग 60 लाख किसान ( जिसमें मुसलिम किसान भारी संख्या में थे ) इस आन्दोलन के सहभागी बने । बंगाल के उन क्षेत्रों में जहाँ दलदली , जंगली भूमि एवं पर्वतीय ढलान थे जोतदारों ने कृषि योग्य भूखण्डों पर कब्जा कर लिया था और वे इस भूमि को भूमिहीन मजदूर को अपनी ओर से अधियार या भागचाशी ( आधी फसल ले लेने ) की व्यवस्था के आधार पर किराए पर उठा देते थे । बरगादार ( अधियार अथवा भागचाशी या बटाईदार ) को फसल के अपने हिस्से में से ही जोतदार की अन्य गैर कानूनी माँगों जैसे नजराना आदि को पूरा करना पड़ता था एवं जोतदार की निजी जमीन पर बेगार भी करनी पड़ती थी । किसानों की जमीनें उनके कब्जे से जो आर्थिक संकट के दिनों में चली गई थी जमीनों पर उन्हें बटाईदारों का कार्य करना पड़ा और 1943 के भयानक अकाल ने इस स्थिति को और भी बिगाड़ दिया । अतः सितम्बर 1946 में बंगाल प्रादेशिक किसान सभा ने काश्तकारों के लिए आधे के स्थान पर तीन चौथाई हिस्से की माँग की , तो हजारों किसान इस आन्दोलन से जुड़ गये । पूरे उत्तरी बंगाल में यह आन्दोलन फैल गया जिसमें जलपाईगुडी , दिनाजपुर , रंगपुर , मैमनसिंह , ( किशोरगंज ) , मेदनीपुर (सूताहाट एवं नंदीग्राम आदि ) , मालदा और 24 परगना (काकद्वीप ) आदि प्रमुख थे । यह आन्दोलन स्वतंत्रता प्राप्ति के काफी समय बाद तक चलता रहा और अन्त में पुलिस कार्यवाही की वजह से धीरे – धीरे समाप्त हो गया । कुल मिलाकर इसकी उपलब्धि 1949 ‘ बर्गदार अधिनियम के रूप में सामने आई जिसे बी . सी . राय सरकार ने अध्यादेश के रूप में पारित किया ।


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