दुर्खीम का धर्म का सामाजिक सिद्धांत Durkheim theory of religion
दुर्खीम से पहले धर्म से सम्बन्धित कई सिद्धांत ( टायलर का आत्मावाद , मैक्समूलर का प्रकृतिवाद आदि ) प्रचलित थे , जिसमें धर्म की व्याख्या व्यक्तिगत विचार , प्रक्रियाओं अथवा मनोवैज्ञानिक धारणाओं ( अर्थात् भय , आश्चर्य स्वप्न आदि ) के संदर्भ में की गई थी । दुर्खीम ने उपरोक्त सिद्धांतों का खण्डन करते हुए कहा कि टायलर द्वारा अपने आत्मावाद के सिद्धांत में आदिमानव का अधिक तर्कयुक्त दार्शनिक मान लेना गलत है । धर्म जैसे जटिल घटना की व्याख्या परछाई , स्वप्न , मृत्यु या वैयक्तिक अनुभवों के आधार पर संभव नहीं है।
इसी प्रकार , मैक्समूलर द्वारा धर्म की व्याख्या में प्रकृति अधिक बल देना एवं सामाजिक आधार की अवहेलना अवैज्ञानिक है । दुर्खीम ने कहा कि उपरोक्त दोनों ही सिद्धांत आनुभविकता से परे हैं । किसने देखा है कि मनुष्य की दो आत्माएं होती है , और एक ब्रह्माण्ड में घूमती हैं धर्म का संबंध पवित्रता से है और यह पवित्रता प्रकृति की भयानक वस्तुओं और आत्मा के साथ नहीं जोड़ी जा सकती है । तत्पश्चात् , दुर्खीम ने अपना धर्म का सामाजिक सिद्धांत प्रस्तुत किया और यह स्थापित किया कि प्रत्येक धर्म का वास्तविक आधार समाज है तथा प्रत्येक धर्म समाज को एक नैतिक समुदाय के रूप में एकताबद्ध करता है ।
धर्म के कारण
दुर्खीम के अनुसार दुनिया के प्रत्येक समाज में सभी वस्तुओं को दो भागों में विभक्त किया जाता है
1. पवित्र तथा
2. लौकिक ।
धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं से है , अर्थात् धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों एवं आचरण की वह समग्र व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में आबद्ध करता है ।
दुर्खीम के अनुसार कोई भी वस्तु अपने अंतर्निहित गुणों के या उपयोगितावादी मूल्यों के कारण पवित्र नहीं होती , बल्कि इसलिए पवित्र होती है कि समाज इनुको विशेष आदर व सम्मान देता है तथा वस्तुओं के क्रम में इनकों ऊंचा स्थान प्रदान करता है । समाज के मिथक , दंतकथायें , रूढियां , विश्वास आदि इन पवित्र वस्तुओं के सद्गुणों एवं शक्तियों को तथा लौकिक गुणों के साथ इनके संबंधों को निरूपित करते हैं।इसके विपरीत , वे वस्तुएं जो पवित्र नहीं हैं , लौकिक हैं । अर्थात् वे वस्तुएं जिनको समाज उपयोगितावादी लक्षणों या आर्थिक लाभ या हानि की दृष्टि से देखता है वे लौकिक हैं ।
उदाहरणार्थ , हिन्दू समाज में कागज या पूजा के फूल को पवित्र माना जाता है और यदि उससे व्यक्ति का पैर छू जाए तो उसको प्रणाम कर क्षमायाचना की जाती है । जबकि , यही समाज कागज या फूल को जब वह बाजार में क्रय विक्रय के लिये उपलब्ध होता है , लौकिक रूप में देखता है।
स्पष्ट है , किसी भी वस्तु में अंतर्भूत ऐसे तत्व या गुण नहीं होते जो किसी वस्तु को पवित्र या लौकिक बनाते हों , बल्कि समाज द्वारा उस वस्तु को देखने का दृष्टिकोण ही उसको पवित्र या लौकिक की श्रेणी में डाल देता है । अर्थात् , किसी वस्तु की पवित्रता का स्रोत उस वस्तु में निहित गुण नहीं बल्कि समाज है ।
इस रूप में , धर्म का वास्तविक स्रोत या कारण भी समाज अपने उपरोक्त विचारों की पुष्टि हेतु दुर्खीम ने जनजातीय समाज में प्रचलित ‘ टोटमवाद ‘ को संदर्भित किया है । दुर्खीम के अनुसार आस्ट्रेलिया की अरुण्टा जनजाति कई गोत्रों में विभक्त है । प्रत्येक गोत्र का एक टोटम होता है जो कोई पशु , पक्षी , पेड़ , या निर्जीव वस्तु भी हो सकता है । इस टोटम के साथ उस गोत्र के सदस्य अपनी उत्पत्ति को जोड़ते हैं , विशेष भावात्मक संबंधों का अनुभव करते हैं और उसको विशेष सम्मान या श्रृद्धा प्रदान करते हैं । किसी गोत्र के सदस्य अपने टोटम के वास्तविक ( कबूतर , गिद्ध आदि ) तथा प्रतीकात्मक ( कबूतर , गिद्ध आदि का चित्र जिसे वे चुरिंगा कहते हैं ) दोनों रूपों को पवित्र मानते हैं , इनको हानि नहीं पहुंचाते तथा इनमें निहित अलौकिक शक्ति की मान्यताओं के कारण इनको अपना रक्षक मानते हैं ।
दुर्खीम का तर्क है कि इस टोटम में कोई अंर्तभूत गुण अलौकिक शक्ति नहीं होती है । यदि ऐसा होता तो एक गोत्र के सदस्य दूसरे गोत्र के टोटम को नुकसान पहुंचाने या मारकर खाने का साहस नहीं करते,अर्थात् टोटम में निहित – शक्ति का स्रोत समाज है इसलिये टोटमवाद पूर्वज पूजा नहीं है , पशु – पक्षी पूजा भी नहीं है , यह तो समाज पूजा है ।
दुर्खीम के अनुसार यही टोटमवाद आधुनिक धर्म के उद्विकास क्रम में धर्म का प्रारंभिक स्वरूप है । इस तरह , दुर्खीम ने धर्म को पवित्र वस्तुओं से संबंद्ध करके तथा पवित्रता का स्रोत समाज को बताकर यह स्थापित किया है कि धर्म सामूहिक चेतना अथवा समाज की अभिव्यक्ति है और धार्मिक पूजा की सच्ची वस्तु समाज की पूजा करना है ।
धर्म के प्रकार्य
दुर्खीम ने धर्म के कारणों को स्पष्ट करने के पश्चात् धर्म की प्रकार्यावादी व्याख्या प्रस्तुत की है । दुर्खीम के अनुसार “धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों एवं अनुष्ठानों की व्यवस्था है । ” जब किसी समुदाय के लोग किसी अनुष्ठान को संपन्न करते हैं या उत्सवों को मनाते हैं ( जैसे – भारत में होली या छठ का त्यौहार ) तो उनमें सामूहिकता , भाईचारा एवं एकता की भावना विकसित होती है । धार्मिक विश्वास या अनुष्ठान से जुड़े कुछ विशिष्ट नियम तथा आदर्श समाज को दिशा देते हैं तथा समाज की नैतिकता को निर्धारित करके उसे एक नैतिक समुदाय के रूप में आबद्ध करते हैं ।
चूंकि, धर्म सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति है । इसलिए इसके पीछे निहित समूह की शक्ति सामाजिक नियंत्रक के रूप में कार्य करती है । धर्म द्वारा उत्पन्न विचार प्रक्रिया लोगों को उनकी परिस्थितियों के अनुरूप ढालने और जीने में मदद करती है साथ ही , धार्मिक आचरण करने वाले व्यक्ति में संसार का सामना करने की शक्ति दृढ़ होती है ।
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आलोचनात्मक मूल्यांकन
दुर्खीम के धर्म संबंधी उपरोक्त विचारों की कई आलोचनाएं की गयी हैं , जैसे आलोचकों के अनुसार , दुर्खीम ने केवल आस्ट्रेलिया के अरुण्टा जनजाति के अध्ययन के आधार पर धर्म के बारे में एक सामान्य सिद्धांत प्रस्तुत कर दिया है जो पद्धतिशास्त्रीय दृष्टिकोण से सही नहीं है ।
इवान्स प्रिचार्ड ने बताया है कि दुर्खीम ने धर्म को स्पष्ट करने के लिये धर्म को पवित्र एवं लौकिक के आधार पर भेद किया है जो तर्कसंगत नहीं है , क्योंकि हो सकता है कि यह भेद आदिम समाज में हो , लेकिन आधुनिक समाज में यह भेद करना काफी कठिन है । आज कई समुदायों में , जैसे श्रीलंका के बेड्डा तथा मलेशियाई लोगों में पवित्र एवं लौकिक के विभाजन का कोई अस्तित्व नहीं है । दुर्खीम ने पवित्र एवं लौकिक को एक – दूसरे का विरोधी माना है जो आवश्यक नहीं है।
जे . आर . गुडी ने उत्तरी घाना की जनजाति के अपने अध्ययन में बताया कि आज भी कई जनजातियों में पवित्र एवं लौकिक के बीच कोई निश्चित विरोध नहीं पाया जाता है ।
मैलिनॉस्की के अनुसार धर्म की उत्पत्ति सदैव सामूहिक आधार पर नहीं हुई है , कई व्यक्तिगत अनुभवों ने भी धर्म को जन्म देने में योगदान दिया है ।
इवान्स प्रिचार्ड ने दुर्खीम की पद्धतिशास्त्रीय आलोचना करते हुए कहा है कि दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य के कारणों को सामाजिक तथ्य के संदर्भ में देखने पर बल दिया है और स्वयं अपनी ही पद्धति का खण्डन करते हुए कहा है कि समुदाय द्वारा संपन्न किये गये अनुष्ठानों से पैदा हुए संवेग से धर्म की उत्पत्ति होती है । धर्म की उत्पत्ति की व्याख्या में संवेग के उपयोग की बात पद्धतिशास्त्रीय दृष्टिकोण से तर्कसंगत / वैज्ञानिक नहीं है|
दुर्खीम ने अपने सिद्धांत में धर्म के केवल सकारात्मक प्रभावों पर बल दिया है और इसके नकारात्मक व अलगाववादी परिणामों को देखने में असफल रहा है । वर्तमान परिस्थिति में दंगे , हिंसा , भेदभाव जैसी अनेक सामाजिक समस्याओं को उत्पन्न करने में भी इसकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता
मेल्कॉम व हेमिल्टन जैसे आलोचकों का मानना है कि दुर्खीम का यह सिद्धांत पूर्व शिक्षित एवं समरूप समाजों के लिये ही अधिक प्रासंगिक है , जहां संस्कृति और सामाजिक संस्थाओं में अधिक घनिष्ट संबंध होता है तथा सदस्य सामान्य विश्वास व्यवस्था में सहभागी होते हैं । आधुनिक , शिक्षित , बहु सांस्कृतिक एवं बहुधार्मिक समाजों में , जहां बहुत सारी उपसंस्कृति , विशेषीकृत संगठन , नृजाति – समूह एवं विशिष्ट संस्थाएं तथा धार्मिक विश्वासों का अस्तित्व होता है , दुर्खीम का यह सिद्धांत पूरी तरह लागू नहीं होता है ।
उपरोक्त आलोचनाएं निश्चित तौर पर दुर्खीम के धर्म संबंधी विचारों में निहित कुछ कमियों को स्पष्ट करती हैं । परन्तु , दुर्खीमकालीन समाज में धर्म जैसी संवेदनशील घटना का वैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन करना धर्म के समाजशास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान माना जा सकता है ।
धर्म के अपने अध्ययन में दुर्खीम द्वारा धार्मिक समूहों की एकता या एकता की कमी को उजागर करने का प्रयास सराहनीय है । दुर्खीम ने प्रारंभ से ही समाज में नैतिकता बनाये रखने का प्रयास अपने सभी लेखनों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किया है , अर्थात् उन्होंने विज्ञान के साथ – साथ सामाजिक अभियांत्रिकी ( Social Engi neering ) के विचार को भी आश्रय दिया है । साथ ही , उसकी संस्कृति की संरचना में पवित्रता एवं लौकिकता के विभाजन ने परवर्ती संरचनावाद के विकास को भी प्रभावित किया है ।
निष्कर्ष
कहा जा सकता है कि दुर्खीम का धर्म का प्रकार्यवादी विश्लेषण धर्म के समाजशास्त्र के लिए महत्वपूर्ण है जिसने बाद के विचारकों ( मैलिनॉस्की , इवान्स प्रिचार्ड , रैडक्लिफ ब्राउन आदि ) के धर्म संबंधी अध्ययन में अभिप्रेरक बनकर धर्म के समाजशास्त्र को समृद्ध किया है ।
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