सार्वभौमीकरण और स्थानीयकरण – मैकिम मैरियट

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सार्वभौमीकरण और संकीर्णीकरण (स्थानीयकरण) – मैकिम मैरियट



सार्वभौमीकरण और संकीर्णीकरण (स्थानीयकरण) - मैकिम मैरियट

सार्वभौमीकरण (Universalization)

मैकिम मैरियट (1955) ने सार्वभौमीकरण की प्रक्रिया का उल्लेख सांस्कृतिक प्रसार (Cultural Diffusion) की प्रक्रिया को दर्शाने के लिए किया है। मकिम मैरियट की दृष्टि में जब लघु परम्परा के तत्त्वों यथा देवी-देवता, प्रथाएँ, संस्कार इत्यादि का फैलाव क्षेत्र विस्तृत हो जाता है, तब यह फैलाव बृहत् परम्परा के स्तर तक पहुँच जाता है तथा उसका मौलिक रूप परिवर्तित हो जाता है तो ऐसी प्रक्रिया को हम सार्वभौमीकरण (Universalization) कहते हैं।

यहाँ यह स्पष्ट होता है कि सार्वभौमीकरण का तात्पर्य लघु एवं बृहत् परम्पराओं के बीच अन्तःक्रिया की प्रक्रिया में है। सार्वभौमीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत लघु परम्पराएँ बृहत् परम्पराओं के निर्माण के साथ-ही-साथ अपनी निरन्तरता भी बनाए रखती हैं। सार्वभौमीकरण के अन्तर्गत लघु परम्परा के तत्त्व स्थानीय स्तर से राष्ट्रीय स्तर की ओर बढ़ते हैं। सार्वभौमीकरण प्रक्रिया से निर्मित बृहत् परम्पराएँ लघु परम्पराओं का संशोधित एवं परिमार्जित रूप होती हैं। 

सार्वभौमीकरण जैसी प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए अनेक उदाहरण दिये जाते हैं। ऐसा समझा जाता है कि जब प्राचीन भारत में वर्ण-व्यवस्था प्रचलित थी तो उस समय रक्षाबन्धन ब्राह्मण वर्ण, विजया दशमी क्षत्रिय वर्ण, दीपावली वैश्य वर्ण एवं होली शूद्र वर्ण का त्योहार था। लेकिन आज होली और दीपावली को ब्राह्मण एवं अन्य जाति के लोगों ने समान रूप से अपना लिया है, अर्थात् इन त्योहारों का अब सार्वभौमीकरण हो गया है। 

मकिम मैरियट ने किशनगढ़ी ग्राम में मनाए जाने वाले सौरती पूजा का उल्लेख किया है। दीपावली के अवसर पर किशनगढ़ी के लोग घरों की दीवार पर चावल के आटे की प्रतिमा बनाते हैं, जिसे वे सौरती देवी के नाम से पुकारते P हैं। सौरती के अतिरिक्त लोग उस दिन लक्ष्मी की भी पूजा करते हैं। मैरियट का मानना है कि एक स्थानीय सौरती देवी कालान्तर में लक्ष्मी के रूप में बदल गयी। अतः सौरती से लक्ष्मी में रूपान्तरण की क्रिया वस्तुतः सार्वभौमीकरण की प्रक्रिया है।

संकीर्णीकरण / स्थानीयकरण (Parochialization)

आंग्ल शब्द ‘Parochial’ का अर्थ ‘संकीर्ण’ या ‘संकुचित’ है। अतः शाब्दिक दृष्टि से वह प्रक्रिया जो समूह की भावना को संकीर्ण बनाती है या समूहों में ग्रामों की स्थानीय विशेषताओं को उत्पन्न करती है, उसे हम स्थानीयकरण की प्रक्रिया कहते हैं। वैसे तो संकीर्णीकरण (स्थानीयकरण) की प्रक्रिया का सर्वप्रथम उल्लेख मॉरिस ऑपलर (Morris E. Opler, 1956 1959) ने किया था। बाद में मकिम मैरियट ने संकीर्णता को अधिक महत्त्व न देकर स्थानीय धार्मिक विश्वासों को अधिक महत्त्व दिया।

मैकिम मैरियट सकीर्णीकरण / स्थानीयकरण को सार्वभौमीकरण की विपरीत विशेषताओं वाली प्रक्रिया मानते हैं। उनके अनुसार जब बृहत् परम्परा के तत्त्व लघु परम्परा के तत्त्वों में सम्मिलित हो जाते हैं तो उनके स्वरूप बदल जाते हैं। परिवर्तन की इसी प्रक्रिया को हम संकीर्णीकरण कहते हैं।

उपर्युक्त कथन से स्पष्ट होता है कि संकीर्णीकरण की प्रक्रिया में बृहत् परम्परा के तत्त्व लघु परम्परा में सम्मिलित होने लगते हैं। यह लघु समुदाय की रचनात्मक प्रवृत्ति को दर्शाती है। इस प्रक्रिया में बृहत् परम्पराओं के मौलिक स्वरूप परिवर्तित हो जाते है।विवेक एवं तर्क के द्वारा संकीर्णीकरण की प्रक्रिया में परिवर्तित बृहत् परम्परा के तत्त्वों की व्याख्या नहीं की जा सकती। इसके साथ ही बृहत् परम्परा के तत्त्व अपनी राष्ट्रीय एवं सामूहिक पहचान को खोने लगते हैं। इसका स्वरूप स्थानीय हो जाता है।

संकीर्णीकरण के भारतीय समाज में अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। हर पर्व एवं व्रत अलग-अलग ढंग से विभिन्न समुदायों में मनाए जाते हैं। एक दशहरा पर्व का ही हम उदाहरण ले तो स्पष्ट है कि यह पर्व देश के भिन्न भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न ढंग से मनाया जाता है। 

इस सन्दर्भ में मकिम मैरियट के किशनगढ़ी गाँव के अध्ययन से ‘नौरता’ पूजा की चर्चा है। वहाँ के लोग ‘नवरात्रि’ शब्द के अपभ्रंश ‘नौरता’ नाम की एक नवीन देवी को पूजने लगे हैं। नी दिन दशहरे के समय लड़कियाँ और औरतें हर दसवें घर के बाहर दीवार पर गोबर एवं मिट्टी की विभिन्न मूर्तियाँ बनाती हैं। संध्या के समय दीपक दिखाती हैं और ‘नौरता’ देवी की पूजा-अर्चना करती हैं। मैरियट ने नौरता को ‘संकुचित देवी’ (Parochial Goddess) माना है। उनका विश्वास है कि ‘नौरता’ दुर्गा का ही वैकल्पिक नाम है। निम्न जातियों के द्वारा सरस्वती पूजा, रक्षाबन्धन एवं विजयादशमी का पर्व मनाना स्थानीयकरण यानी संकीर्णीकरण का उदाहरण है।

हमारी बहुत-सी ऐसी प्राचीन परम्पराएँ हैं, जो समय के साथ अपनी शुद्धता को खो बैठीं और स्थानीय रंगों में रंग गयीं। पूजा-पाठ एवं विवाह सम्बन्धी बहुत सारे ऐसे नियमों का प्रचलन हो गया है जो वैदिक रिवाज़ों से बिलकुल भिन्न हैं। एच. एच. रिजली (H. H. Risley) ने बताया है कि उत्तर प्रदेश के बहुत से ब्राह्मण दूसरी जगह बस गए हैं और उन ब्राह्मणों ने अपनी पुरानी जीवन-शैली में फेर-बदल कर स्थानीय जीवन-शैली को अपना लिया है। ब्राह्मणों या किसी उच्च जाति द्वारा अपनी परम्परागत जीवन-शैली में तबदीली लाकर स्थानीय जीवन-शैली को अपना लेना एक किस्म का स्थानीयकरण या संकीर्णीकरण है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि भारतीय समाज में एक धारा इसके विपरीत भी बहती है, जो ज्यादा स्पष्ट और सशक्त रही है। ऊंची जाति के लोगों ने अपनी पुरानी जीवन-शैली को छोड़कर ब्राह्मणों की जीवन-शैली को अपनाया है, ताकि उनको समाज में वही स्थान एवं सम्मान मिले जो ब्राह्मणों का रहा है। इसी प्रक्रिया को एम. एन. श्रीनिवास (1977) ने संस्कृतीकरण के पहले ब्राह्मणीकरण (Brahminization) कहा था। ब्राह्मणीकरण की यह प्रक्रिया ही विश्वव्यापीकरण की प्रक्रिया से जानी जाती है।

सार्वभौमीकरण एवं संकीर्णीकरण में अन्तर 


सार्वभौमीकरण एवं संकीर्णीकरण की अवधारणाओं की उपर्युक्त व्याख्या के आधार पर दोनों में मौलिक अन्तर निम्नलिखित है –

1. सार्वभौमीकरण की प्रक्रिया में परम्पराओं का प्रभाव क्षेत्र विस्तृत एवं विकसित होता है, जबकि संकीर्णीकरण की प्रक्रिया में प्रभाव-क्षेत्र संकीर्ण एवं संकुचित होता है। सार्वभौमीकरण में स्थानीय विश्वासों एवं कर्मकाण्डों का महत्त्व घटता है, जबकि संकीर्णीकरण की प्रक्रिया में स्थानीय विश्वासों एवं कर्मकाण्डों की संख्या में वृद्धि होती है।

2. सार्वभौमीकरण की प्रक्रिया में लघु परम्पराएँ बड़ी परम्परा का निर्माण करती हैं। दूसरी ओर संकीर्णीकरण की प्रक्रिया में बृहत् परम्परा के तत्त्व छोटी परम्परा को विकसित करते हैं

3. सार्वभौमीकरण की प्रक्रिया व्यवस्थित है, जबकि संकीर्णीकरण की प्रक्रिया अव्यवस्थित ।

4. सार्वभौमीकरण के अन्तर्गत लघु परम्पराएँ विकसित होकर नयी बृहत् परम्परा का रूप लेती हैं जो पूर्व प्रचलित होती हैं ।

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