कार्ल मार्क्स के धर्म पर विचार

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धर्म का मार्क्सवादी सिद्धांत / मार्क्स का धर्म सिद्धांत (Marx’s religion theory)

कार्ल मार्क्स के धर्म पर विचार



मार्क्स ने पूँजीवादी व्यवस्था के विश्लेषण के क्रम में मानव समाज के बारे में एक व्यापक दृष्टिकोण विकसित किया है जिसके अंतर्गत वह समाज के अर्थव्यवस्था तथा उत्पादन प्रणाली को समाज के आधार के रूप में स्वीकार किया है और सामाजिक ढाँचे के अन्य भागों जैसे – धर्म , राजनीति , कला , साहित्य आदि को इस अर्थव्यवस्था द्वारा निर्धारित माना है । मार्क्स के अनुसार उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के आधार पर मानव समाज दो वर्गों में विभक्त रहा है , प्रथम , स्वामी वर्ग और द्वितीय , वंचित वर्ग । चूँकि सामाजिक ढाँचे के अन्य भागों के निर्माण में स्वामी वर्ग की भूमिका अहम् होती है इसीलिए ये सदैव स्वामी वर्ग के हितों का समर्थन करते हैं और वंचित वर्ग के शोषण को न्यायोचित ठहराते हैं । मार्क्स के अनुसार अधिसंरचना के एक अंग के रूप में धर्म की भूमिका भी मानव समाज के लिए यही रही है । मार्क्स के शब्दों में ” धर्म पीड़ित लोगों की आह , एक बेदिल दुनियाँ की भावना और आत्मविहीन स्थितियों की आत्मा है । यह जनसाधारण के लिए अफीम है । यह पीड़ितों के लिए दुख एवं पीड़ा से बचने का एक साधन है जो उन्हें झूठी तसल्ली देता है और उन्हें दुख एवं पीड़ा को सहने के लिए प्रेरित करके शोषणकारी व्यवस्था में बदलाव का विरोध करता है । “ वर्ग समाज में धर्म की इस भूमिका को मार्क्स ने निम्न रूपों में दर्शाया है –

1 . धर्म मृत्यु के बाद के जीवन का वादा करता है । मार्क्स का तर्क है कि अगर मनुष्य के पास आगे कुछ अच्छा देखने के लिए हो तो वह तकलीफ एवं पीड़ा को सहने के लिए तैयार हो जाते हैं । 

2. धर्म उत्पीड़न द्वारा पैदा की गई गरीबी एवं दुखों का गुणगान करता है और जीवन की वंचनाओं एवं दुखों को विनम्रता एवं सम्मान के साथ सहने हेतु प्रेरित करता है । मार्क्स के कथन इस बात को अनुसार बाईबिल का एक मशहूर स्पष्टतः व्यक्त करता है कि ” एक ऊँट का सूई की आँख से पार करना किसी सेठ द्वारा स्वर्ग की राजधानी में प्रवेश करने से अधिक आसान है । ” 

3. धर्म प्रायः मनुष्य को अन्याय सहन करने की शिक्षा देता है क्योंकि वह बताता है कि उसके पास जितना कुछ है वह ईश्वरीय इच्छा का परिणाम है और उसे इसको स्वीकार करना चाहिए । 

4. धार्मिक शिक्षा पृथ्वी की समस्याओं के समाधान के लिए मनुष्य को पारलौकिक हस्तक्षेप पर भरोसा रखने के लिए प्रेरित करता है और इन समस्याओं के समाधान हेतु मानवीय प्रयासों को हतोत्साहित करता है । 

             इस तरह मार्क्स स्थापित करता हैं कि धर्म न केवल अन्याय और शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को तर्कसंगत और न्यायपूर्ण बताने के लिए कई कल्पित कथाएँ गढ़ता है बल्कि यह उत्पीड़न एवं दमन के लिए औजार के रूप में भी कार्य करता है । 

मार्क्स के शब्दों में धर्म एक प्रकार की विचारधारा है जो शासक वर्ग के लिए राजनैतिक विचारधारा के रूप में कार्य करते हुए शासक वर्ग के शासन को वैध ठहराता है । ऐतिहासिक रूप से सभी संगठित धर्मों ने शासक वर्ग से संरक्षण पाया है और बदले में धार्मिक नेताओं ने अपने अनुयायियों का ध्यान अपने दमन के सच्चे रूपों से हटाकर शासक वर्ग को सत्ता में बने रहने में मदद की है । 

मार्क्स का मानना है कि पूंजीवादी समाज में वर्ग चेतना के विकास , सर्वहारा क्रांति और उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व के स्थापना साथ इस शोषणकारी व्यवस्था का अंत होगा और साम्यवादी समाज का आगमन होगा । इस अवस्था में वर्ग समाज एवं वर्ग शोषण का विनाश हो जाएगा ,फलतः धर्म की आवश्यकता नहीं रह जाएगी और यह लुप्त हो जाएगा। 

मार्क्सवादी सिद्धांत : आलोचनात्मक मूल्यांकन 

धर्म के बारे में मार्क्स के उपरोक्त विचारों की कई आलोचनाएँ की गई है , जैसे 

1 . फायरबाख से एक कदम आगे बढ़ते हुए मार्क्स ने धर्म के उद्भव के लिए शोषणकारी सामाजिक परिस्थितियों को उत्तरदायी ठहराया है । आलोचकों का कहना है कि मार्क्स का यह विश्लेषण धर्म के उद्भव का एकपक्षीय विश्लेषण प्रस्तुत करता है और धर्म के उद्भव के पीछे क्रियाशील व्यक्तिगत अनुभव या सामूहिक चेतना की भूमिका की उपेक्षा करता है । 

2. आलोचकों के अनुसार मार्क्स द्वारा धर्म को अर्थव्यवस्था द्वारा निर्धारित मानना भी धर्म का ‘ एक कारकीय ‘ विश्लेषण है क्योंकि धर्म न केवल समाज के अन्य कई पक्षों द्वारा प्रभावित होता है , बल्कि अर्थव्यवस्था में परिवर्तन एवं विकास में भी सहायक या बाधक धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया होता है । इस संदर्भ को प्रोत्साहित करने में आधुनिक शिक्षा , राज्य या साम्यवादी विचारधारा की भूमिका एवं मैक्सवेबर का ‘ प्रोटेस्टेंट आचार एवं पूंजीवाद की आत्मा ‘ संबंधी विचार महत्वपूर्ण हैं ।

3. मार्क्स के उपरोक्त विचारों पर प्रकार्यवादियों का प्रमुख आरोप यह है कि मार्क्स ने धर्म के केवल नकारात्मक प्रभावों को दर्शाया है और इसकी प्रकार्यकारी भूमिका की उपेक्षा की है। जबकि प्रारंभ से लेकर आज तक के मानव समाज में एकीकरण एवं सुदृढ़ता हेतु धर्म कई रूपों में प्रकार्यकारी रहा है। 

4. मार्क्स का यह विचार भी आलोच्य रहा है कि धर्म यथास्थिति का समर्थन एवं परिवर्तन के विरोधी के रूप में क्रियाशील रहा है। आलोचकों के अनुसार धर्म कई बार सामाजिक – आर्थिक परिवर्तन एवं विकास हेतु भी प्रमुख कारक के रूप में महत्वपूर्ण रहा है । मैक्सवेबर द्वारा प्रस्तावित पूंजीवाद के विकास हेतु प्रोटेस्टेंट धर्म की भूमिका , ईरान में मोहम्मद रजा शाह के शासनकाल में व्याप्त शोषणकारी व्यवस्था का विरोध एवं अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में रजा शाह के तख्तापलट एवं ईरान में सामाजिक परिवर्तन लाने में धर्म की भूमिका या फिर अमेरिका में हाल ही में घटित ‘ नव धार्मिक अधिकार आंदोलन ‘ के रूप में धर्म की भूमिका इस तथ्य की पुष्टि करते हैं । 

5. मार्क्स द्वारा यह मानना भी तर्कसंगत नहीं है कि साम्यवादी व्यवस्था में धर्म समाप्त हो जाएगा । आलोचकों के अनुसार धर्म चूंकि मानव समाज की अपरिहार्य विशेषता के रूप में दुनियाँ के सभी समाजों में एवं सभी कालों में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा है । इसलिए मार्क्स द्वारा धर्म विहीन समाज की कल्पना एक ‘ यूटोपिया ‘ मात्र है । पूर्वी समाजवादी देशों के व्यावहारिक अध्ययन भी मार्क्स के इस विचार को खारिज करते हैं क्योंकि यहाँ भी धर्म की संस्था व्यावहारिक स्तर पर समाप्त नहीं हुई है । 

              उपरोक्त आलोचनाएँ निश्चित तौर पर मार्क्स के धर्म संबंधी विचारों में निहित कमियों को उजागर करती हैं , बावजूद इसके धर्म के समाजशास्त्रीय विश्लेषण में मार्क्स का यह विचार महत्वपूर्ण है । धर्म के बारे में मार्क्स का यह विचार उसके समकालीन प्रशा के अनुभवों पर आधारित है जहाँ प्रोटेस्टेंट धर्म का प्रचलन था , जिसको प्रशा सरकार का संरक्षण प्राप्त था और जो पूंजीवादी व्यवस्था एवं प्रशा सरकार की नीतियों का समर्थन करता था । इसीलिए मार्क्स का झुकाव धर्म के नकारात्मक पहलुओं के विश्लेषण की ओर अधिक रहा । फलतः उसने न केवल धर्म के सकारात्मक पहलुओं की उपेक्षा की बल्कि सामाजिक परिवर्तन में धर्म की भूमिका को रेखांकित करने में भी वह असफल रहा । फिर भी , धर्म के समाजशास्त्रीय विश्लेषण का यह विचार समाजशास्त्रीय पद्धतिशास्त्र के क्षेत्र में और धर्म के समाजशास्त्रीय अध्ययन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान है । मार्क्स का यह विचार उनके बाद के विद्वानों के धर्म संबंधी विश्लेषण हेतु भी अभिप्रेरक रहा है । ब्रायन एस . टर्नर का धर्म संबंधी विश्लेषण या महिलावादी विचारकों , ( जैसे- Simone De- Beauvoir और Jean Holm ) द्वारा धर्म के नकारात्मक पहलुओं का विश्लेषण और इसको पितृसत्तात्मक समाज के निर्माण और लिंग असमानता के पोषक के रूप में प्रस्तुत करना इस तथ्य को पुष्ट करता है । हाल के वर्षों में मार्क्सवादी नहीं होते हुए भी Anthony Giddens द्वारा समकालीन समाज में धर्म के नकारात्मक भूमिका का विश्लेषण या Huntington द्वारा अपने अध्ययन Clash of Civilization में धर्म के नकारात्मक भूमिका की चर्चा भी इस तथ्य को परिलक्षित करती है ।




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