सुरजीत सिन्हा का सभ्यतागत परिप्रेक्ष्य
(Civilization Perspective of Sinha )
सुरजीत सिन्हा जीवन-चित्रण एवं प्रमुख कृतियाँ (Surajit Sinha: Life-sketch and Main Works)
सुरजीत सिन्हा का जन्म 1926 ई० में हुआ था। वह रोबर्ट रैडफील्ड के शिष्यों में से एक हैं। उनका प्रमुख कार्य भूमिज हिन्दू अन्तर्क्रिया पर है एवं वह यह भी नहीं स्वीकारते कि भारत में जनजातियाँ धीरे-धीरे जाति व्यवस्था में विलीन हो रही हैं। उन्होंने अपने अध्ययनों में जातियों की बदलती भूमिका को भी दर्शाया है।
सुरजीत सिन्हा के अनेक लेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनमें प्रमुख लेख निम्नांकित हैं-
(1) “The Media and Nature of Hindu-Bhumij Interactions”, Journal- of the Asiatic Society: Letters and Science (1957)
(2) “Tribal Cultures of Peninsular India as a Dimension of Little Tradition in the Study of Indian Civilization: A Preliminary Statement”, Man in India (1957)
(3) “Changes in the Cycle of Festivals in a Bhumij Village”, Journal Of Social Research (1958)
(4) “Tribal Cultures of Peninsular India as a Dimension of Little Tradition in the Study of Indian Civilization: A Preliminary Statement”, Journal of American Folklore (1958)
(5) “Bhumij-Kshatriya Social Movement in South Manbhum”, Bulletin of the Department of Anthropology, Government of India (1959)
(6) “Status Formation and Rajput Myth in Tribal Central India”, Man in India (1962);
(7) “Levels of Economic Initiative and Ethnic Groups in Pargana Barabhum”, The Easter Anthropologist (1963)
(8) “Tribe-caste and Tribe-peasant Continnum in Central India”, Man in India (1965)
(9) “Caste in India : Its Essential Pattern of Socio-cultural Integration” in A. de Reuck and J. Knight (eds.), Caste and Race: Comparative Approaches (1967)
सिन्हा का सभ्यता परिप्रेक्ष्य
(Civilization Perspective of Sinha )
सुरजीत सिन्हा ने सभ्यता परिप्रेक्ष्य को स्वीकार किया है और उन्होंने कहा है कि यदि हम भारतीय समाज को समझना चाहते हैं तो यहाँ की सभ्यता को जानना आवश्यक है। सभ्यता ही समाज का दर्पण है, जिसके आधार पर समाज की संरचना और विशेषताओं को समझा जा सकता है। सुरजीत सिन्हा भारत के प्रमुख मानवशास्त्री रहे हैं जिनके बारे में लोग अपेक्षाकृत कम परिचित हैं। उन्होंने मुख्य रूप से बराभूम की भूमिज जनजाति तथा बस्तर की जनजातियों के अतिरिक्त भारतीय जाति व्यवस्था पर भी कार्य किया है। उनका प्रमुख कार्य मध्य भारत में भूमिज हिन्दू अन्तर्क्रिया (1957) पर रहा है जिसके आधार पर उन्होंने जनजाति-जाति सातत्य, जनजाति-राजपूत सातत्य, भूमिज-क्षत्रिय सातत्य जैसी अवधारणाओं को विकसित किया है। इन अध्ययनों में सिन्हा ने जनजातियों तथा हिन्दू जातियों में अन्तर्क्रियाओं, सामाजिक गतिशीलता तथा अन्तक्रिया के परिणामस्वरूप होने वाले आन्दोलनों का अध्ययन किया है। उन्होंने जनजाति एकजुटता सम्बन्धी आन्दोलन, मसीही आन्दोलन इत्यादि अनेक विषयों पर कई लेख लिखे हैं जो मानवशास्त्र की सुप्रसिद्ध पत्रिकाओं जैसे – Man in India, Eastern Anthropologist, Journal of Asiatic Society Journal of American Folklore इत्यादि में प्रकाशित हुए हैं।
सिन्हा ने अपने अध्ययनों में आदिवासी संस्कृति के भौतिक पक्ष अर्थात् सभ्यता के आधार पर भारत में सभ्यता के विकास की बात की है अर्थात् उनके अनुसार जनजातीय सभ्यता से ही भारतीय सभ्यता का विकास हुआ है। उन्होंने रैडफील्ड द्वारा प्रतिपादित ‘लोक कृषक नगरीय सातत्य’ की अवधारणा को अपनाते हुए भारतीय जनजातियों में हो रहे व्यावसायिक परिवर्तन का अध्ययन किया हैं। उनका विचार है कि जनजातीय संस्कृति कृषक संस्कृति की ओर परिवर्तित हो रही है। उनका विचार था कि अनेक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक भौतिक तथ्यों का जातियों एवं जनजातियों में समान रूप से वितरण तथा उनको जीवन-शैली में समानता, उनके बीच होने वाली अन्तर्क्रिया का परिणाम है। समानता के उदाहरण देते हुए उन्होंने भारत की अनेक निम्न जातियों में जनजातियों के समान सामाजिक व्यवहार में समानता, महिलाओं के लिए सांस्कृतिक सहभागिता, अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्रता इत्यादि लक्षणों का उल्लेख किया है। अनेक जातियों एवं जनजातियों के देवालयों में स्थानीय देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ लगी हुई हैं। इन समानताओं के बावजूद सिन्हा उन विद्वानों (जैसे एम० एन० श्रीनिवास) से सहमत नहीं थे जिनका विचार था कि जनजातियाँ धीरे-धीरे जातीय संस्तरण में सम्मिलित होती जा रही हैं। उनका कहना था कि, “जनजातियाँ पारिस्थितिकी, जनांनकिकी, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक और सामाजिक व्यवहार में नृजातीय समूहों से पृथक् हैं।” उनकी यह ऐतिहासिक छवि ही जनजातियों को हिन्दू जातियों से अलग करती है और उन्हें एक जनजातीय पहचान देती है।
सिन्हा ने बिहार की भूमिज जनजाति पर हिन्दुओं के बढ़ते हुए प्रभाव, जिसे उन्होंने हिन्दूकरण (Hinduization) कहा, पर अनेक लेख लिखे हैं। इन लेखों में उन्होंने जनजातीय सभ्यता एवं स्थानीय हिन्दू सभ्यता में अनेक प्रकार से समन्वय की प्रक्रिया का उल्लेख किया है। जातियों की नवीन भूमिका का विवेचन करते हुए सिन्हा ने कहा है कि अब जातियों की परंपरागत भूमिका सीमित होती जा रही है तथा अब उन्होंने नवीन राजनीतिक एवं आर्थिक भूमिकाएँ निभाना प्रारम्भ कर दिया है। इन फिर भी कई संदर्भों में ये आज भी ‘बन्द समाज’ (Close Society) कहा जाता है, क्योंकि अभी तक किसी मुक्त मॉडल’ (Opened Model) का विकास इनमें नहीं हो पाया है।
इस प्रकार एन. के. बोस और सुरजीत सिन्हा दोनों को ही भारत में सभ्यता परिप्रेक्ष्य का समर्थक कहा जाता है दोनों ने ही सभ्यतामूलक अध्ययन किये तथा इसी प्रकार के अध्ययन करने की प्रेरणा भी दी।
Read Also-
एन्टोनियों ग्राम्सी का आधिपत्य का सिद्धांत
सुरजीत सिन्हा का सभ्यतागत परिप्रेक्ष्य
#सुरजीत सिन्हा का सभ्यतागत परिप्रेक्ष्य
#सभ्यतागत परिप्रेक्ष्य