जी एस घुर्ये का भारत विद्याशास्त्रीय उपागम – Indological perspective

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जी एस घुर्ये का भारत विद्याशास्त्रीय उपागम (Indological perspective of G.S Ghurye)



जी एस घुर्ये का भारत विद्याशास्त्रीय उपागम

भारत विद्या परिप्रेक्ष्य

इण्डोलॉजी शब्द का प्रयोग एक स्वतंत्र विज्ञान और एक अध्ययन के परिप्रेक्ष्य दोनों रूपों में किया जाता है। एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में इण्डोलॉजी का तात्पर्य भारतीय उपमहाद्वीप के प्राचीन धर्मग्रंथों एवं महाकाव्यों (वेद, पुराण, उपनिषद, ब्राह्मण आदि), भाषाओं (संस्कृत, पालि, प्राकृत या शास्त्रीय तमिल व परसियन),ऐतिहासिक प्रलेखों, पाण्डुलिपियों आदि के शैक्षणिक अध्ययन से है । अध्ययन के परिप्रेक्ष्य के रूप में यह वर्तमान भारतीय समाज एवं संस्कृति के विश्लेषण में इन प्राचीन धर्मग्रंथों, भाषाओं, ऐतिहासिक दस्तावेजों आदि के महत्त्व को स्वीकार करते हुए अध्ययन के स्रोत के रूप में इनके प्रयोग पर बल देता है। इस परिप्रेक्ष्य के समर्थकों की मान्यता है कि आधुनिक भारतीय समाज एवं इसके अंगों अथवा संस्थाओं की व्याख्या प्राचीन ग्रंथों से प्राप्त तथ्यों द्वारा ही संभव है तथा ग्रंथ जितना प्राचीन होगा उतना ही वह प्रामाणिक होगा । यह परिप्रेक्ष्य एक प्रकार से पुस्तकीय परिप्रेक्ष्य है, जिसमें किसी भी प्रकार के क्षेत्र कार्य को अस्वीकार किया जाता है और केवल उस समाज से संबंधित शास्त्रीय ग्रंथों आदि में मंग्रहित सामग्री को ही विश्लेषण का आधार-बिन्दु माना जाता है।

परिचय – जी. एस. घुर्ये 

गोविन्द सदाशिव घुर्ये उन अग्रणी समाजशास्त्रियों में से एक हैं जिन्हें भारत में समाजशास्त्र विषय को प्रणीत करने का श्रेय दिया जाता है।

घुर्ये का जन्म महाराष्ट्र के मालवन ग्राम में एक रूढ़िवादी परिवार में हुआ उन्होंने मुंबई के एलिफिन्सटन कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त की और भाषाशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि-अर्जित की। तत्पश्चात् वे मुंबई विश्वविद्यालय के पेट्रिक गेड्स के संपर्क में आए जो वहाँ समाजशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष थे। घुर्ये ने गेड्स के नेतृत्व में ‘एक नगरीय केन्द्र के रूप में बंबई’ विषय पर एक लेख लिखा जिसके आधार पर घुर्ये को विदेश में पढ़ने की छात्रवृत्ति मिली और वह लंदन चले गए। वहाँ पर कुछ समय तक लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में एल. टी. हॉबहाउस के साथ कार्य किया ।

तत्पश्चात् उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के रिवर्स के तथा उनकी मृत्यु के पश्चात् ए. सी. हेडन के निर्देशन मे अपना शोधकार्य पूरा किया जो 1932 में ‘भारत में जाति और प्रजाति’ के नाम से प्रकाशित हुआ। लंदन से लौटने के पश्चात् घुर्ये ने गेड्स के बाद बंबई विश्वविद्यालय समाजशास्त्र का कार्यभार संभालने वाले प्रथम भारतीय विद्वान, भारत में समाजशास्त्र के संस्थापक एवं भारत के समाजशास्त्र के पिता के रूप में स्वयं को स्थापित किया।




सुरजीत सिन्हा का सभ्यतागत परिप्रेक्ष्य

घुर्ये द्वारा भारत विद्या परिप्रेक्ष्य का प्रयोग

भारत विद्याशास्त्र और धर्म

घुर्ये द्वारा भारत विद्याशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का सर्वाधिक प्रयोग उनके द्वारा किए गए धर्म के समाजशास्त्रीय अध्ययन में दृष्टिगत होता है। उन्होंने कई पुस्तकों जैसे ‘The Indian Sadhus’, ‘Gods & Man’, ‘Religious Consciousness’, ‘Vedic India’ आदि के माध्यम से धार्मिक विश्वास, कर्मकांड तथा भारतीय परंपरा में साधु की भूमिका पर प्रकाश डाला है। जब मैक्स वेबर द्वारा Religion of India में धर्म एवं अर्थव्यवस्था के मध्य संबंधों के अपने विश्लेषण में हिन्दू धर्म को Other-Worldly और अतार्किक रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था और इसे औद्योगिक पूंजीवाद के विकास में बाधक ठहराया जा रहा था; घुर्ये द्वारा हिन्दू धर्म के बारे में किया गया सकारात्मक विश्लेषण भारत में धर्म के समाजशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

घुर्ये ने अपनी पुस्तक ‘Vedic India’ में ऋग्वेद के आधार पर मैक्स वेबर के विचारों के विपरीत यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि वैदिक कालीन भारतीय समाज में आर्थिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक पक्षों के मध्य प्रकार्यात्मक संबंध विद्यमान रहा है।

अपनी एक अन्य पुस्तक ‘The Indian Sadhus’ में ऋग्वेद, उपनिषद, ब्राह्मण आदि स्रोत ग्रंथों के आधार पर घुर्ये ने भारत में ‘सन्यास’ को हिन्दू धर्म का आधारभूत तत्व मानते हुए ‘सन्यास’ के उद्भव, विकास, इनके संगठन और हिन्दू समाज को बनाये रखने में सन्यासियों की भूमिका का विशद विश्लेषण प्रस्तुत किया हैं। उनके अनुसार, संन्यासी त्याग की प्रतिमूर्ति रहे हैं, जातीय मानदण्डों एवं सामाजिक परंपराओं से ऊपर रहे हैं, इन्होंने धार्मिक वाद-विवादों में मध्यस्थता की है, धार्मिक ग्रंथों एवं पवित्र विद्या के पठन-पाठन को संरक्षण दिया है और साथ ही विदेशी आक्रमणों के समय धर्म की रक्षा की है।

अपनी एक अन्य महत्त्वपूर्ण कृति ‘Gods & Man’ में घुर्ये ने ऋग्वेद, शिव पुराण, विष्णु पुराण आदि ग्रंथों को संदर्भ ग्रंथ के रूप में प्रयुक्त किया है और हिन्दू धर्म के पाँच प्रमुख भगवान सूर्य, शिव, विष्णु, गणेश एवं देवी के उद्भव एवं विकास के आधार पर भारतीय संस्कृति के उद्भव एवं विकास को तथा भारतीय समाज के निर्माण में इनकी भूमिका को समझाने का प्रयास किया है। घुर्ये ने इन देवताओं द्वारा प्रयुक्त वाहनों को भी समाजशास्त्रीय संदर्भ प्रदान करते हुए इण्डो-आर्यन द्वारा मूल भारतीय जनजातियों के टोटम को अपनाने की प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया है।

भारत विद्याशास्त्र और जाति

घुर्ये द्वारा भारतीय समाज के विश्लेषण में इस परिप्रेक्ष्य के प्रयोग का एक और प्रमुख उदाहरण उनके द्वारा किए गए जाति व्यवस्था के अध्ययन में दृष्टिगत होता है। ‘Caste and Race in India’ एवं ‘Caste Class and Occupation’ में क्षेत्र कार्य के साथ-साथ प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित स्रोतों के आधार पर जाति व्यवस्था के लाक्षणिक विशेषताओं एवं उसकी उत्पत्ति के बारे घुर्ये के विचार उल्लेखनीय रहे हैं।

घुर्ये ने ऋग्वेद, मनुस्मृति तथा ब्राह्मण ग्रंथों को स्रोत ग्रंथ के रूप में प्रयोग करते हुए जाति व्यवस्था को एक पूर्णत: विशिष्ट भारतीय घटना के रूप में स्वीकार नहीं किया है और इसकी 6 लाक्षणिक विशेषताओं की चर्चा करते हुए इसके सांस्कृतिक एवं संरचनात्मक पक्षों को समझाने का प्रयास किया है।

घुर्ये ने जाति व्यवस्था की उत्पत्ति संबंधी अपने विश्लेषण में अपने पूर्व के विद्वानों की तरह केवल मनुस्मृति में उल्लिखित वर्ण मॉडल को आधार नहीं बनाया है, बल्कि ऋग्वेद, मनुस्मृति, उपनिषद् तथा ब्राह्मण ग्रंथों आदि के विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष दिया है कि भारत में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के लिए मुख्यतः इण्डो-आर्यन संस्कृति के ब्राह्मण उत्तरदायी रहे हैं, जिन्होंने अपनी शुद्धता एवं आधिपत्य को कायम रखने के लिए इस व्यवस्था को उत्पन्न किया। घुर्ये ने इस बात पर भी बल दिया कि जाति संस्था की सही समझ के लिए उपजातियों को ही जाति की मान्यता दे देनी चाहिए।

इन पुस्तकीय साक्ष्यों के आधार पर घुर्ये ने जाति व्यवस्था की गतिशीलता को भी दर्शाया है और यह स्पष्ट किया है कि ईस्वी सन् की प्रारंभिक शताब्दियों में किस प्रकार वैश्य शूद्र और शूद्र वैश्य बन गए ।

भारत विद्याशास्त्र और जनजाति

घुर्ये से पहले मानवशास्त्रियों एवं प्रशासकों द्वारा भारतीय जनजातियों की पहचान हिन्दू समाज से पृथक समुदाय के रूप में स्थापित की जाती रही है। मुख्यतः वेरियर एल्विन द्वारा भारतीय जनजातियों की समस्याओं का कारण उनका बाहरी समाज के साथ संपर्क को बताते हुए उनको पुनः बाहरी समाज से पृथक करने की सलाह दी जा रही थीं।

घुर्ये ने भारतीय जनजातियों के बारे में उपरोक्त स्थापना को अस्वीकार किया और कई भारत विद्याशास्त्रीय स्रोतों के हवाले से यह सिद्ध किया कि भारतीय जनजातियाँ ऐतिहासिक रूप से हिन्दू समाज की अंग रही हैं जो आज पिछड़ गई हैं। इस संबंध में घुर्ये ने अपने ‘हिन्दूकरण’ की अवधारणा को प्रस्तुत किया और दर्शाया कि हिन्दू समुदाय एवं जनजातीय समुदाय के मध्य संबंध ऐतिहासिक है और जनजातियों द्वारा हिन्दूवाद को अपनाने की प्रक्रिया भारतीय समाज में ऐतिहासिक रूप से विद्यमान रही है। इसके लिए घुर्ये ने सम्राट अशोक की जनजातीय नीति का उल्लेख किया है और साथ ही डी.डी. कौशाम्बी द्वारा उल्लिखित तथ्यों का भी जिक्र किया है जिसके धार पर कौशाम्बी ने छठवीं शताब्दी में गंगा के मैदानी इलाकों के जनजातियों द्वारा कौशल एवं मगध राज्य में सात्मीकरण की प्रक्रिया को दर्शाया है।

घुर्ये ने इन ग्रंथों के आधार पर भारतीय जनजातियों के ‘हिन्दूकरण’ की प्रक्रिया के लिये दो कारणों की चर्चा की है पहला, अल्पविकसित जनजातियों द्वारा स्वयं को आर्थिक रूप से विकसित करना और दूसरा, जनजातीय विश्वासों एवं रीतियों के लिए जाति व्यवस्था की उदारता ।

भारत विद्याशास्त्र और नातेदारी व्यवस्था

हिन्दू समाज में नातेदारी व्यवस्था के विश्लेषण में भी घुर्ये द्वारा भारत विद्याशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का प्रयोग किया गया है जिनको उनके अध्ययन ‘Family and Kin in Indo-Europian culture’ तथा ‘Two Brahmanical Institution: ‘Gotra and Charan’ में देखा जा सकता है। इन पुस्तकों में घुर्ये ने ऋग्वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, पुराण आदि के विश्लेषण के आधार पर अंतर्विवाह एवं बहिर्विवाह के रूप में जाति एवं नातेदारी के मध्य संबंध, जाति एवं उपजाति अंतर्विवाह तथा गोत्र एवं प्रवर बहिर्विवाह और इनकी सामाजिक निर्माण में भूमिका को समझाने का प्रयास किया है।

इस संदर्भ में घुर्ये ने स्थापित किया है कि भारत में अनुलोम विवाह की भूमिका ने जाति व्यवस्था में गतिशीलता को सीमित किया है। नातेदारी व्यवस्था के अंतर्गत एक आधारभूत धारणा यह है कि एक गोत्र के सदस्यों में रक्त संबंध होता है अर्थात् कोई ऋषि या संत उनके पूर्वज माने जाते हैं फलतः एक गोत्र के सदस्यों में विवाह को अनुचित माना जाता है। घुर्ये ने ‘Two Brahmanical Institution: ‘Gotra and Charan’ में प्राचीन पुस्तकीय साक्ष्यों के आधार पर इस अवधारणा को निरर्थक व तर्कहीन बताया और निष्कर्ष दिया है कि भारत में एक वंश के लोग सदैव रक्त संबंध से नहीं बंधे होते हैं। अतीत के आध्यात्मिक अवतरण से भी वंशों का निर्माण होता रहा है।

भारत विद्याशास्त्र और नगरीकरण

घुर्ये द्वारा भारत में नगरीकरण की प्रवृत्ति के विश्लेषण में भी इस परिप्रेक्ष्य का प्रयोग उल्लेखनीय है, जिसमें उन्होंने अनेक संस्कृत ग्रंथों, कालिदास व भवभूति के साहित्य, कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि में उल्लिखित तथ्यों के आधार पर यह स्थापित किया है। कि भारत में नगरीकरण की प्रवृत्ति अन्य देशों की तरह औद्योगीकरण का परिणाम नहीं है बल्कि इसकी शुरूआत प्राचीनकाल में ही गांव की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हो चुकी थी।

घुर्ये ने भारत में नगरीकरण संबंधी अपने विश्लेषण में मौर्यकालीन पाटलिपुत्र को न केवल मेट्रोपोलिस के रूप में प्रस्तुत किया है बल्कि ममफोर्ड जैसे विद्वानों के द्वारा किए गए मेट्रोपोलिस के विश्लेषण को अस्वीकार करते हुए मेट्रोपोलिस के प्रकार्यात्मक पक्षों को प्रस्तुत किया है और मौर्यकालीन पाटलिपुत्र के उद्भव एवं विकास को Epic Brahmanism के परिणाम के रूप में दर्शाया है।

भारत विद्याशास्त्र और कला एवं संस्कृति

घुर्ये ने भारतीय कला, नृत्य एवं वेशभूषा पर भी अपने अध्ययन को प्रस्तुत किया है और इसमें भी भारत विद्याशास्त्रीय स्रोतों का खुलकर प्रयोग किया है। इन ग्रंथों में उल्लिखित तथ्यों के आधार पर उन्होंने बताया है कि भारतीय मंदिरों के प्ररेणा स्रोत एवं विषय-वस्तु वेदों एवं महाकाव्यों पर आधारित रही हैं। इनके अनुसार हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्म के कलात्मक स्मारकों में कई समान तत्त्व विद्यमान हैं जबकि मुस्लिम स्थापत्य कला फारसी या अरबी संस्कृति पर आधारित रही है। घुर्ये ने प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल की हिन्दू, बौद्ध एवं जैन कलाकृतियों के साथ-साथ वेशभूषा में पायी जाने वाली भिन्नताओं के चित्रण में भी इस उपागम का प्रयोग किया है।

 

                          इस प्रकार घुरिये का यह परिप्रेक्ष्य और इस परिप्रेक्ष्य के तहत भारतीय समाज के बारे में दिया गया उनका विचार ‘भारत के समाजशास्त्र’ के क्षेत्र में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है।

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