अरविन्द घोष शैक्षिक दर्शन – यहां से पढ़िए पूरे नंबर मिलेंगे | अरविन्द घोष के शैक्षिक विचार

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#अरविन्द घोष शैक्षिक दर्शन

अरविन्द घोष का शैक्षिक दर्शन 

अरविन्द घोष शैक्षिक दर्शन - यहां से पढ़िए पूरे नंबर मिलेंगे | अरविन्द घोष के शैक्षिक विचार

श्री अरविन्द घोष (SRI AUROBINDO GHOSH)

Education to be complete must have five principa aspects relating to the five principles of human being the physical, the vital, the mental, the psychic and the spiritual –Aurobindo Gosh

जीवन-परिचय

(AUROBINDO’S LIFE (1872-1950))

श्री अरविन्द का जन्म 15 अगस्त सन् 1872 ई० में कलकत्ता के परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम कृष्णधन घोष और माता का नाम स्वर्णलता देवी था। अरविन्द की प्रारम्भिक शिक्षा दार्जिलिंग के लारेटो कॉन्वेंट में हुई। उन्होंने यहां दो साल तक शिक्षा प्राप्त की। 1879 ई० में उनको शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंगलैण्ड भेजा गया वहाँ उन्होंने ड्रिवेट दम्पत्ति की देखरेख में लैटिन का अध्ययन किया। 1885 ई० में उन्हें लन्दन के सेण्ट पॉल स्कूल में प्रवेश दिलाया गया। श्री अरविन्द उच्च शिक्षा प्राप्त कर 1893 ई० में स्वदेश आये।

भारत आकर उन्होंने बड़ौदा राज्य की सेवा करना स्वीकार किया। यहाँ कुछ समय तक उन्होंने लगान-बन्दोबस्त, स्टाम्प और रेवेन्यू विभाग आदि में कार्य किया। इस बाद उन्होंने बड़ौदा स्टेट कॉलेज में लेक्चरार के पद पर कार्य किया।

बड़ौदा में रहते हुए श्री अरविन्द का विवाह 1901 ई० में मृणालिनी नामक कन्या से हुआ। दुर्भाग्यवश मृणालिनी देवी का देहान्त 1918 ई० में इन्फ्ल्यूएंजा से हो गया। उन्होंने 1905 से 1910 तक सक्रिय राजनीति में भाग लिया। उन्होंने एक वर्ष कारावास भी झेला।

अरविन्द 1910 ई० में पॉण्डचेरी गये। पॉण्डचेरी पहुँचकर अरविन्द योग-साधना में तल्लीन हो गये। उनकी दीर्घ साधना का फल 24 नवम्बर, 1936 ई० को प्राप्त हुआ। इस साधना से उनको परम शक्ति के दर्शन हुए। उन्होंने अपने अन्तिम दिन पॉण्डचरी आश्रम में व्यतीत किये। इन महान ऋषि, साधक तथा शिक्षाशास्त्री ने 2 दिसम्बर, 1950 को इस संसार का त्याग करके दिव्य-लोक को प्रस्थान किया।

श्री अरविन्द का शैक्षिक दर्शन

(AUROBINDO’S EDUCATIONAL PHILOSOPHY)

अरविन्द का शिक्षा दर्शन आध्यात्मिक साधना, ब्रह्मचर्य और योग पर आधारित है। उनका विश्वास है कि इस प्रकार की शिक्षा से मानव का पूर्ण विकास किया जा सकता है। श्री अरविन्द का कथन है-“सच्ची और वास्तविक शिक्षा केवल वही है जो मानव की अन्तर्निहित समस्त शक्तियों को इस प्रकार विकसित करती है कि वह उनसे पूर्ण रूप से लाभान्वित होता है।”

श्री अरविन्द के अनुसार अन्तःकरण -शिक्षा का आधार है। उन्होंने अन्तःकरण के चार पटल बताए है- चित्त, मानस, बुद्धि और ज्ञान तथा उनके प्रशिक्षण एवं विकास पर बल दिया है। 

अन्तःकरण का प्रथम पटल चित्त है, जो अन्य तीनों पटलों का आधार है। जब हम कुछ याद करते हैं तो वह छनकर चित्त में एकत्र हो जाती है।

अन्तःकरण का द्वितीय पटल मनस है, जिसमें अन्य पटल एकत्र होते हैं और इसे दर्षन की भाषा में मस्तिष्क कहा जाता है। इसका कार्य ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्ययों को ग्रहण करना और उसे विचारों में परिवर्तित करना है। 

अन्तःकरण का तृतीय पटल बुद्धि है, मस्तिष्क जिस विचारों को प्राप्त करता है उसे व्यवस्थित करने का वास्तविक यंत्र बुद्धि है। शिक्षण के लिये बुद्धि का सर्वाधिक महत्व है। इसमें रचनात्मक, विश्लेषणात्मक, संश्लेषणात्मक एवं आलोचनात्मक शक्तियाँ निहित होती हैं। 

अन्तःकरण का चर्तुथ पटल ज्ञान है। इसके आधार पर व्यक्ति भविष्य कथन करने में समर्थ होता है। मस्तिष्क की यह शक्ति पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकी है। यह विकास की अवस्था में है। इस दुलर्भ शक्ति का विकास किया जाये तो मानवता की अनेक समस्याओं का समाधान मिल सकता है।

श्री अरविन्द ने अपनी शिक्षा में किसी ऐसे विषय की उपेक्षा नहीं की, जिसमे शैक्षिक अभिव्यक्ति और जीवन की क्रियाशीलता के गुण मौजूद थे। यही कारण है कि उनकी शिक्षा में समाज, व्यापार, साहित्य, कविता, वास्तुकला और मूर्तिकला को उचित स्थान दिया गया। उनका एकमात्र उद्देश्य था – इन सभी विषयों में जीवन का नया संचार करके उनको एक नया रूप देना। वे इनको इतना अधिक विकसित कर देना चाहते थे कि इनके माध्यम से श्रेष्ठ मानवता और आत्मा की पूर्णता बिल्कुल स्पष्ट रूप से देखा जा सके। इस प्रकार, उनकी शिक्षा का चरम लक्ष्य-सम्पूर्ण मानव-जाति का सर्वांगीण विकास करके आध्यात्मिक आधार पर विश्व के समस्त राष्ट्र की स्थापना करना था ।

शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त या आवश्यक तत्त्व (BASIC PRINCIPLES OR ESSENTIAL FEATURES OF EDUCATIONAL PHILOSOPHY)

1. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा और शिक्षा का केन्द्र बालक होना चाहिए। 

2. शिक्षा का मुख्य आधार – ब्रह्मचर्य और शिक्षा का विषय रोचक होना चाहिए। 

3. शिक्षा, बालक की मनोवृत्तियों और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों के अनुकूल होनी चाहिए।

4. शिक्षा में धर्म को स्थान देना चाहिए क्योंकि ऐसा न करने से भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलता है।

5. शिक्षा को व्यक्ति में निहित समस्त ज्ञान का उद्घाटन करना चाहिए।

6. शिक्षा को बालक का शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक और संवेगात्मक विकास करके उसे पूर्ण मानव’ बनाना चाहिए। 

7. शिक्षा को बालक की नैतिकता का विकास करना चाहिए और उसके व्यावहारिक जीवन को सफल बनाना चाहिए।

8. शिक्षा को व्यक्ति में निहित समस्त शक्तियों का इस प्रकार विकास करना चाहिए कि वह उनसे पूर्ण रूप से लाभान्वित हो।

9. शिक्षा को चेतना का विकास, संस्कार और रूपान्तर करना चाहिए, क्योंकि चेतना ही परम सत्ता और सृष्टि का आधारभूत सत्य है।

10. शिक्षक को बालक का मित्र और पथ-प्रदर्शक होना चाहिए और उसे बालक की शारीरिक बुद्धि की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।

शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education) – 

श्री अरविन्द का शिक्षा के प्रति नया दृष्टिकोण है। उन्होंने घोषित किया है- “सूचनाओं का संग्रह मात्र शिक्षा नहीं है। सूचनाएँ ज्ञान की नींव नहीं हो सकती हैं। वे अधिक से अधिक वह सामग्री हो सकती है, जिनके द्वारा जानने वाला अपने ज्ञान की वृद्धि कर सकता है अथवा वे वह बिन्दु है, जहाँ से ज्ञान को प्रारम्भ किया जाय या नई खोजों को निकालना शुरू किया जाय। वह शिक्षा, जो अपने को ज्ञान देने तक सीमित रखती है, शिक्षा नहीं।”

श्री अरविन्द ने शिक्षा को अति व्यापक और गतिशील रूप दिया है। उन्होंने इसकी व्याख्या प्राचीन भारतीय परम्पराओं के आधार पर की है। श्री अरविन्द का कहना है-“शिक्षा-मानव के मस्तिष्क और आत्मा की शक्तियों का निर्माण करती है। ज्ञान, चरित्र और संस्कृति का उत्कर्ष करती है।

शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education)– 

श्री अरविन्द ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए हैं- 

1. बालक की शारीरिक शुद्धि करना और उसके शरीर का पूर्ण तथा विकास करना।

2. बालक की चित्त-सम्बन्धी क्रियाशीलता को समुन्नत करके उसके अन्तःकरण का विकास करना । 

3. बालक की स्नायु-शुद्धि, चित्त-शुद्धि और मानस-शुद्धि करके उसकी इन्द्रियों के उचित प्रयोग का विकास करना।

4. बालक की अभिरुचियों के अनुसार उसकी स्मृति, कल्पना, चिन्तन और निर्णय-शक्ति का विकास करके उसका मानसिक विकास करना।

5. बालक की प्रकृति, आदतों और भावनाओं को शुद्ध और सुन्दर बना कर उसके हृदय का परिवर्तन करना और उसकी नैतिकता का विकास करना। 

6. बालक की ‘वैयक्तिक और प्रच्छन्न शक्ति (Individuality & Potentiality) को पूर्णता की ओर अग्रसर करके उसका आध्यात्मिक विकास करना।

7. बालक को तथ्य संग्रह करने और निष्कर्ष निकालने का प्रशिक्षण देकर उसकी तर्कशक्ति का विकास करना ।

पाठ्यक्रम (Curriculum) – 

श्री अरविन्द ने बालक का नैतिक, भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास करने के लिए शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रम के जो विषय निर्धारित किए हैं, वे इस प्रकार हैं- 

(1) प्राथमिक शिक्षा – मातृभाषा, अंग्रेजी, फ्रेंच, सामान्य विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, गणित और चित्रकला ।

(2) माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा मातृभाषा, अंग्रेजी, फ्रेंच, गणित, सामाजिक अध्ययन, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, जीव-विज्ञान, वनस्पति-विज्ञान, स्वास्थ्य- विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान और चित्रकला ।

(3) विश्वविद्यालय शिक्षा- भारतीय पाश्चात्य दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, सभ्यता का इतिहास, अंग्रेजी साहित्य, गणित, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, विज्ञान का इतिहास, फ्रेंच साहित्य, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, जीवन का विज्ञान (Science of Life) और विश्व एकीकरण (World Integration)।

शिक्षण-विधि (Method of Teaching)

श्री अरविन्द – ‘शिक्षण की क्रमिक विधि’ (Successive Method of Teaching) के पक्ष में हैं। इस विधि में जैसा कि आजकल है, बालक को एक समय में अनेक विषयों की शिक्षा नहीं दी जाती है। इसके विपरीत, उसे केवल एक या दो विषयों की शिक्षा दी जाती है। जब वह इन विषयों का ज्ञान प्राप्त -लेता है, तब इसी प्रकार उसे अन्य विषयों की शिक्षा दी जाती है। श्री अरविन्द ने अपनी क्रमिक शिक्षण विधि को निम्नलिखित शिक्षण- सिद्धान्त आधारित किया है- 

1. करके सीखना ।

2. बालक का सहयोग । 

3. बालक की स्वतन्त्रता ।

4. प्रेम व सहानुभूति का प्रदर्शन । 

5. बालक की रुचियों का अध्ययन ।

6. शिक्षा का माध्यम- मातृभाषा । 

7. बालक के निजी प्रयास व निजी अनुभव को प्रोत्साहन ।

8. विषयों की प्रकृति के अनुसार बालक की शक्तियों का प्रयोग।

शिक्षक का स्थान (Place of the Teacher )

श्री अरविन्द के अनुसार, शिक्षा में अध्यापक को निर्देशक, पथ-प्रदर्शक और सहायक के रूप में कार्य करना चाहिए। मौन रूप से बालकों की अभिरुचियों का अध्ययन करके और उन अभिरुचियों के बालकों के लिए शिक्षा की सामग्री का संकलन तथा करे। उसे स्वयं अनुसार बालको को ज्ञान देने का प्रयास नहीं करना चाहिए और न उन बाह्य ज्ञान को लादना ही चाहिए। उसे तो यह प्रयत्न करना चाहिए कि बालक अपनी अभिरुचियों के अनुसार ज्ञान का अर्जन करते हुए स्व-शिक्षा (Self Education) के पथ पर अग्रसर है। इस प्रकार. श्री अरबिन्द ने अध्यापक को शिक्षा में गौण स्थान दिया है।

श्री अरविन्द का कथन है- “अध्यापक अनुदेशक (Instructor) या स्वामी नहीं है, यह सहायक और पथ-प्रदर्शक है। उसका कार्य सुझाव देना है, न कि ज्ञान को लादना । वह वास्तव में छात्र के मस्तिष्क को प्रशिक्षित नहीं करता है। यह छात्र को केवल यह बताता है कि वह अपने ज्ञान के साधनों को किस प्रकार समृद्ध बनाए। वह छात्र को सीखने की प्रक्रिया में सहायता और प्रेरणा देता है। वह छात्र को ज्ञान नहीं देता है। वह उसे यह बताता है कि वह अपने-आप किस प्रकार ज्ञान प्राप्त करे। वह बालक के अन्दर निहित ज्ञान को बाहर नहीं निकालता है। वह उसे केवल यह बताता है कि ज्ञान कहाँ है और उसको बाहर लाने के लिए किस प्रकार अभ्यस्त किया जा सकता है। 

इस प्रकार अरविन्द जी शिक्षक को पथप्रदर्शक मानते हुए कहा कि एक सफल शिक्षक को अपने विषय के ज्ञान के साथ-साथ अध्यात्म और योग का भी पूरा ज्ञान और अनुभव होना चाहिए। शिक्षक का व्यक्तित्व आदर्शों एवं आत्म विश्वास से भरा होना चाहिए।

विद्यालय

विद्यालय के सम्बन्ध में अरविन्द जी के विचार प्राचीन समय की आश्रम व्यवस्था से बहुत मिलते-जुलते हैं पर उनमें आधुनिक आवश्यकताओं का भी पूरा ध्यान रखा गया है। श्री अरविन्द के अनुसार विद्यालयों में सभी बच्चों को उनकी योग्यतानुसार प्रवेश के समान अवसर मिलने चाहिए। विद्यालयों का वातावरण विश्वबन्धुत्व की भावना से पूर्ण होना चाहिए। बालक को विद्यालय में सुव्यवस्थित जीवन व्यतीत करना चाहिए। विद्यालय सभी धर्म, संस्कृति और ज्ञान की प्राप्ति करने में सहायक हो। उनमें किसी तरह का जाति, रंग, धर्म आदि के आधार पर भेद-भाव न हो। विद्यालय का वातावरण आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हो।

बालक का स्थान (Place of the Child)– 

श्री अरविन्द ने बालक को शिक्षा में प्रमुख स्थान दिया है। उनके विचारानुसार बालक का विकास उसकी प्रकृति अभिरुचि तथा धर्म के अनुकूल ही किया जाना चाहिए। वह शिक्षा बालक के लिए निरर्थक है पूर्व निर्धारित गुणों, आदशों, भावनाओं और विशेषताओं के अनुसार आयोजित की जाती है। कारण यह है कि प्रत्येक बालक में व्यक्तिगत क्षमताएँ और विलक्षणताएँ होती है। यदि इनकी अवहेलना करके एक पूर्व सूची के अनुसार बालकों में किन्हीं गुणों और आदशों को उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है, तो यह कार्य बालक के लिए अन्यायपूर्ण और अहितकर होता है।

अनुशासन

लाइफ वाइन के विचारों के आधार पर श्री अरविन्द की शिक्षा पद्धति को फ्री प्रोग्रेस सिस्टम कह सकते है। जिसमें बालक अपनी योगाता तथा क्षमता के अनुसार मुक्त शिक्षा ग्रहण करता है। बालक के स्वतंत्र विकास हेतु कठोर तथा दमनात्मक अनुशासन पर बल न देकर मुक्त व्यात्मक अनुशासन पर बल दिया है। मुक्त व्यात्मक अनुशासन सम्बन्धी धारणा प्रकृतिवादी अनुशासन की संकल्पना के समानांतर है जिसके अनुसार बालक को उसकी प्रकृति के अनुसार विकसित होने के लिये छोड़ देना चाहिये। बालक के त्रुटि करने पर उसको डांट न लगाकर उसके सामने ऐसा वातावरण उत्पन्न करना चाहिये कि वह सरलता से उसे स्वीकार कर सके। शिक्षक द्वारा बालक को उसकी भूल से अवगत करा देना चाहिये जिससे वह भविष्य में पुनरावृत्ति न करें।

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