जाकिर हुसैन के शैक्षिक विचार| Zakir Hussain ke shaikshik vichar

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जाकिर हुसैन के शैक्षिक विचार

जाकिर हुसैन के शैक्षिक विचार|जाकिर हुसैन का शिक्षा दर्शन

डा० जाकिर हुसैन (1897- 1969)

डॉ० जाकिर हुसैन का जन्म 8 फरवरी सन् 1897 में एक धनी ‘ एवं सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा उन्होंने इटावा से पूर्ण की तत्पश्चात् उच्च शिक्षा के लिए अलीगढ़ गये जहाँ से उन्होंने स्नातक की शिक्षा अर्जित की। उस समय भारतवर्ष में उच्च शिक्षा की अच्छी व्यवस्था नहीं थी अतएव उसके लिए उन्हें विदेश जाना पड़ा। डॉ० जाकिर हुसैन बर्लिन विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र विषय में उच्च शिक्षा प्राप्त की। वहाँ से लौटने के बाद एक शिक्षक के रूप में उन्होंने अपना व्यवहारिक जीवन प्रारम्भ किया। 1920 में डॉ० साहब के प्रयासों से ‘जामिया मिलिया’ नामक संस्था की स्थापना अलीगढ़ में की गयी, जिसे बाद में दिल्ली में स्थानान्तरित कर दिया गया। डॉ० जाकिर हुसैन 1926 से 1948 तक इसी संस्था में कुलपति रहे। उनकी देख-रेख एवं कुशल प्रशासन से वह संस्था उत्तरोत्तर उन्नति करती रही। उच्च एवं मौलिक अध्ययनों को उन्होंने प्रोत्साहित किया उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उन्होंने विश्वविद्यालय में ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जिससे देश प्रेम, धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णुता के आदशों से विद्यार्थी युक्त हों।

डॉ० जाकिर हुसैन जामिया मिलियां को ऐसी संस्था बनाना चाहते थे जिसमें पढ़ने वाले विद्यार्थी आपसी मतभेदों को भुलाकर उच्च नैतिकता के आदर्शों का पालन करते हुए देश के विकास में एक साथ | मिल कार्य करें।

डॉ० जाकिर हुसैन की विद्वत्ता को परखकर 1937 में हरीपुरा कांग्रेस सम्मेलन में स्वीकार किये गये ‘बेसिक शिक्षा ड्राफ्ट’ को मूर्त रूप देने के लिए जो हिन्दुस्तानी तालीम संघ बनायी गयी, उसका उन्हें अध्यक्ष बनाया गया। इस जिम्मेदारी को उन्होंने गम्भीरता से लिया तथा बेसिक शिक्षा (नयी तालीम) को भारतीय परिस्थितियों में व्यवहारिक स्वरूप देने के लिए प्रतिवेदन तैयार किया। डॉ० जाकिर हुसैन अलीगढ़ विश्वविद्यालय के कुलपति सन् 1948 में नियुक्त हुए। उन्होंने अपनी योग्यता से केवल देश में ही ख्याति अर्जित नहीं कि बल्कि विदेशों में भी अपनी सेवा एवं विद्वत्ता से सभी को प्रभावित किया। वे 1955 से 1957 तक जिनेवा में सभापति के रूप में रहे। 1957 में यूनेस्को के सदस्य हुए।

अपनी क्षमता एवं योग्यता का परिचय उन्होंने केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं दिया बल्कि राजनैतिक क्षेत्र में भी अपनी इमानदारी एवं कर्त्तव्यनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध हुए। डॉ० जाकिर हुसैन सन् 1957- 62 तक बिहार के राज्यपाल रहे, इस दौरान उन्होंने अपनी अद्भुत कार्य शैली का परिचय दिया, जिसमें उनका सम्मान और अधिक बड़ा।

इससे प्रभावित होकर उन्हें भारत का राष्ट्रपति चुना गया। डॉ० जाकिर हुसैन की विद्वता से प्रभावित होकर देश एवं विदेश के कई विश्वविद्यालयों ने उन्हें डी० लिट० की मानद उपाधि से सम्मानित किया। वे भरतीय जनतंत्र के सजग प्रहरी तथा जननायक थे, उन्होंने भारतीय संविधान की गरिमा के अनुरूप धर्म निरपेक्ष एवं प्रजातान्त्रिक मूल्यों के सृजन पर बल दिया। जीवन के व्यस्ततम क्षणों में भी उन्होंने अपने अध्ययन एवं लेखन कार्य को विराम नहीं दिया।

जाकिर हुसैन ने अपने जीवन काल में कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें से कुछ निम्न हैं।

(1) केपेटिलिज्म,

(2) ऐन ऐसे इन अन्डरस्टेंडिंग एजुकेशनल डिसकोर्स,

(3) शिक्षा

(4) एड्यूकेशनल रिकन्सट्रक्शन इन इण्डिया,

(5) स्केल एण्ड मेथड्स आफ इकोनॉमिक्स,

(6) इथिक्स एण्ड दी स्टेट

(7) डी डायनेमिक यूनिवर्सिटी

इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ पाश्चात्य विद्वानों की प्रसिद्ध पुस्तकों का अनुवाद उर्दू में किया जिससे उस ज्ञान को सामान्य जन तक पहुँचाया जा सके, उसमें मुख्य रूप से ‘रिपब्लिक’ (प्लेटो द्वारा लिखी गयी पुस्तक) का अनुवाद है। जीवन के अन्त तक ये शिक्षा तथा शिक्षण संस्थाओं से जुड़े रहे। देश और समाज की उन्होंने सच्ची सेवा करते हुए सन् 1969 में अपने नश्वर शरीर का त्याग किया।


जाकिर हुसैन के शैक्षिक विचार

जाकिर हुसैन एक मानवतावादी, आर्थिक चिन्तक के रूप में जाने जाते हैं। उनका व्यक्तित्व अति उदार राजनेताओं के रूप में देखा जाता है। भारत के विकास के लिए शिक्षा को ये प्रमुख साधन के रूप में मानते थे लेकिन अंग्रेजी या पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान को नहीं वरन् वह ज्ञान जो भारत वर्ष की आवश्यकताओं को पूरा करे। उनकी मौलिक सोच के कारण ही उन्हें हम शिक्षा शास्त्री के रूप में देखते हैं। बेसिक शिक्षा का सिद्धान्त यदि महात्मा गांधी ने तैयार किया तो उसे भारतीय परिस्थितियों में मूर्तरूप देने का कार्य उन्होंने किया। डॉ० जाकिर हुसैन एक योग्य शिक्षकों, शिक्षाविद् तथा कुशल प्रशासक के रूप में ख्याति अर्जित की है।

पूर्व-प्राथमिक शिक्षा (PRE-PRIMARY EDUCATION)

पूर्व-प्राथमिक शिक्षा को उन्होंने विशेष महत्व दिया, बल्कि विकास की गति को जितनी शीघ्रता, उसकी प्राथमिक अवस्था में होती है उतनी अन्य आयु अवस्था में नहीं शिक्षा होती। इस दृष्टि से यह अवस्था महत्वपूर्ण है। इस अवस्था में बालक के शारीरिक विकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए। बालक की शिक्षा में रचनात्मक एवं हाथ के कार्य को विशेष महत्व दिया।

प्राथमिक शिक्षा (PRIMARY EDUCATION)

डॉ० जाकिर हुसैन ने बालक की प्रारम्भिक शिक्षा पर विशेष बल दिया। इसलिये उनका विचार था कि 6-14 वर्ष तक की आयु इससे भी अधिक समय तक के लिये अगर सम्भव हुआ तो शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क होनी चाहिए और राज्य का कर्तव्य है कि प्राथमिक शिक्षा के प्रसार एवं उन्नति में सहायता करें।

माध्यमिक शिक्षा (SECONDARY EDUCATION)

बालक जब माध्यमिक स्तर पर आता है तो उसमें इस आयु से भी मानसिक शक्तियों का विकास होने लगा है। आलोचनात्मक प्रवृत्ति का विकास होने लगता है ।अतः इस दृष्टि से माध्यमिक स्तर की शिक्षा को विशेष महत्व दिया।डॉ० जाकिर हुसैन ने माध्यमिक स्तर पर सांस्कृतिक उद्देश्य एवं विश्वास के साथ जीविकोपार्जन के उद्देश्य को भी सम्मिलित करने का सुझाव दिया। 

उच्च शिक्षा(HIGHER EDUCATION)

डॉ० जाकिर हसैन ने विश्वविद्यालय स्तर पर स्वायत्तता की माँग की, विश्वविद्यालय विचारों का घर माना। अतः विद्यार्थी में स्वतन्त्र रूप से खोज प्रवृत्ति का विकास हो। अन्वेषण द्वारा नये-नये ज्ञान की वृद्धि करें।

विशेष शिक्षा(SPECIAL EDUCATION)

डॉ० जाकिर हुसैन ने विशेष शिक्षा के अन्तर्गत वैज्ञानिक शिक्षा पर विशेष रूप से बल दिया। देश की प्रगति विज्ञान द्वारा ही सम्भव है।

शिक्षा का अर्थ-

डॉ० जाकिर हुसैन शिक्षा को अनवरत चलने वाली प्रक्रिया मानते थे. जो कभी रुकती नहीं है। उन्होंने शिक्षा को मनुष्य के सम्पूर्ण विकास का साधन माना है- जिसके द्वारा शरीर, मन, आत्मा के अतिरिक्त सामाजिक, सांस्कृतिक एवं माध्यमिक पक्षों का भी विकास हो क्योंकि मनुष्य किसी भी एक पक्ष के अभाव में अपूर्ण रह सकता है। उन्होंने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा है कि “शिक्षा बालक की मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों के विकास है ताकि उसमें वाह्य जगत से सामंजस्य करने की क्षमता उत्पन्न हो जाय। “ महात्मा गांधी की तरह डॉ० जाकिर हुसैन ने शिक्षा के साध्य एवं साधन दोनों पक्षों को महत्वपूर्ण माना है। वे कहते थे कि शिक्षा यदि एक साधन है तो उसे व्यवस्थित चलना चाहिए तथा उसके द्वारा इमानदार, चरित्रवान, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक समाज का निर्माण हो जो मानवीय मूल्यों से युक्त हों ।


डॉ० जाकिर हुसैन शिक्षा के पाश्चात्यीकरण ने भौतिक मॉडल को अपनाने का विरोध किया है। उनका दृष्टिकोण है कि शिक्षा का अर्थ केवल भौतिक साधनों को जुटाने तक ही सीमित नहीं होता जिसमें वर्तमान सुख सुविधायें एकत्रित की जाये। वरन् शिक्षा अपने व्यापक अर्थ में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों का विकास है और इन शक्तियों के विकास के लिए मस्तिष्क का पूर्ण विकास जरूरी है।


पाठ्यक्रम (Curriculum)

पाठ्यक्रम में पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा क्रिया प्रधान शिक्षा को महत्व दिया है। 

• पाठ्यक्रम में हस्त उद्योग के उपयोग को विशेष बल दिया, क्योंकि इस उद्देश्य था कि बालक में इसके द्वारा इतनी कुशलता आ जाये कि वह आवश्यकता पड़ने पर आत्मनिर्भर भी हो सके।

• पाठ्यक्रम इस प्रकार निश्चित किया जिससे विद्यालय, घर और समाज के जीव में सामंजस्य उत्पन्न होता है।

• डॉ० जाकिर हुसैन का यह भी विचार था कि समय-समय पर पाठ्यक्रम परिवर्तन भी होना चाहिये। क्योंकि किसी भी सिद्धान्त को स्थायी मानना दोषपूर्ण है। समयानुसार सिद्धान्त को प्रत्येक काल के लिये निश्चित नहीं किया जा सकता न ही यह उपयुक्त होता है। 

• जाकिर हुसैन का विचार है कि पाठ्यक्रम के निर्माण में व्यक्तिगत भेद के सिद्धान्त को महत्व देना चाहिए। क्योंकि आवश्यकतायें तथा क्षमतायें हर व्यक्ति की अलग-अलग होती हैं, यदि तद्नुरूप शिक्षा की व्यवस्था हो तो व्यक्ति उसमें रुचि भी लेता है और अपनी पूर्णक्षमता का प्रदर्शन भी करता है।

• वास्तव में डॉ० जाकिर हुसैन ने पाठ्यक्रम में उपयोगितावादी दृष्टिकोण को अपनाया है।

शिक्षण विधि (Teaching Method)

प्रयोगवादी दार्शनिक डीवी की तरह डॉ० जाकिर हुसैन ने भी विद्यालय को एक प्रयोगशाला या कार्यशाला के रूप में महत्त्व दिया है। इसमें छात्र कैसे अध्ययन करेंगे इसके विषय में उनका विचार है कि “विद्यालय कर्मस्थल होंगे, जहाँ विद्यार्थी स्वानुभावों द्वारा (शाश्वत व सामाजिक मूल्यों व दायित्वों का ज्ञान प्राप्त करेंगे। इन शालाओं में, पुस्तकालयों में अपनी खोज, अपनी प्रवृत्ति और परिश्रम से बड़े वही और सुयोग्य अध्यापकों की देख-रेख में अपनी स्वतंत्रता और अपने दायित्वों के अनुभव द्वारा वास्तविक शोध का महत्व समझ सकेंगे।”

डॉ० जाकिर हुसैन ने मौखिक शिक्षण को महत्व नहीं दिया है बल्कि करके सीखने, क्रियात्मक ढंग से सीखने, अनुभवों द्वारा सीखने, खोज द्वारा सीखने को अधिक महत्व दिया है। उन्होंने किसी भी कार्य को सफलता पूर्वक करने के लिए चार पद माना है।

(1) कार्य योजना बनाना ।

(2) कार्य योजना को पूरा करने के साधन खोजना।

(3) क्रियान्वयन करना।

(4) मूल्यांकन करना ।

किसी भी ज्ञान, कार्य अथवा शोध के लिए सबसे पहले मस्तिष्क में समस्या का चयन होता है तदुपरान्त अनुभवों के द्वारा कार्य की योजना बनायी जाती है। योजना को पूरा करने के लिए किन-किन साधनों की आवश्यकता पड़ेगी, इसकी भी खोज मस्तिष्क में होती है। इसके पश्चात् उसका क्रियान्वयन किया जाता है। अन्त में शिक्षा का कार्य हैं कि बनायी गयी योजना कितना सफल रही या असफल रही, इसका मूल्यांकन किया जाता है। इस प्रकार से इस शिक्षण विधि में मस्तिष्क एवं शरीर (हाथ) दोनों का समुचित प्रयोग होता है।

डॉ० जाकिर हुसैन ने शिक्षण विधि में सबसे अधिक डी०वी० के प्रोजेक्ट विधि को महत्व दिया । आदर्शवादी शिक्षण विधियों को केवल एक विशिष्ट ज्ञान (आध्यात्मिक) तक ही कुछ उपयोगी माना है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि शिक्षण विधियों की दृष्टि से डॉ० जाकिर हुसैन अपने को प्रयोगवादी दार्शनिकों की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया है। सह-सम्बन्ध शिक्षण विधि को महत्वपूर्ण नही माना है।

विद्यालय (School)

प्रसिद्ध दार्शनिक डी०वी० ने विद्यालय को सामुदायिक केन्द्र के रूप में अभिकल्पित किया ठीक उसी प्रकार डॉ० जाकिर हुसैन ने भी विद्यालय को समाज या बाह्य संसार का प्रतिनिधित्व करने की बात है।उनका विचार है कि विद्यालय ईटों-गारों से बनी एक इमारत ही न हों बल्कि ऐसा स्थल होना चाहिए जहाँ से (दृढ चरित्र, समाज सेवी, अच्छे सांस्कृतिक नागरिक को निर्माण हो सके।

• डॉ० जाकिर हुसैन विद्यालय को एक कार्यशाला के रूप में परिणत करना चाहते थे जहाँ विविध प्रकार का कार्य अनुभव एवं कुशलता छात्र पा सकें जिससे समाज में उनका अच्छा समायोजन हो सके।

डॉ० जाकिर हुसैन शालाओं के ऐसे वातावरण पर बल देते थे जहाँ संकीर्णता का नामोनिशान न हो, वर्ग, जाति, धर्म भेद दफन हो जायँ केवल राष्ट्र एवं समाज को आगे बढ़ाने की चर्चायें हो। विद्यार्थी केवल बन्द चहारदीवारी के अन्दर का ही ज्ञान न प्राप्त करें बल्कि वाह्य संसार से सम्पर्क करने के लिए उन्हें दुनियाँ के उन तमाम चीजों का ज्ञान होना चाहिए जिससे विश्व समुदाय से किसी भी मायने में कम न हो। डॉ० जाकिर हुसैन का विचार था कि भारतीय विद्यालय अपनी संस्कृति और सभ्यता का अनुसरण करें तथा व्यक्ति का विकास अपनी पृष्ठ भूमि में ही करें। जिस प्रकार आज सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों में गिरावट आ रही हैं इसका संभवतः अनुमान विद्वान डॉ० हुसन ने पहले ही लगा लिया था। इसीलिए उन्होंने बार-बार विद्यालय एवं समाज को जोड़ने की बात कही है जिससे एक पूर्ण मानव का विकास हो सके।

डॉ० जाकिर हुसैन ने विद्यालयों को मानवीय मूल्यों के विकास का केन्द्र माना है। मूल्य विहीन शिक्षा को वे शिक्षा की संज्ञा देने के लिए सहमत नहीं थे।

शिक्षक

शिक्षा प्रणाली में शिक्षक की भूमिका को उन्होंने प्रमुख माना है, उनका कहना था कि “शिक्षक में जो सबसे बड़ी बात है वह यह है कि उसे विषय के ज्ञान के साथ-साथ तमाम वाह्य समार से जुड़े विषयों की जानकारी हासिल हो उसे सद्व्यवहार, नैतिकता, आध्यात्मिकता, संस्कृति ,सामाजिकता तथा धर्मनिरपेक्षता आदि उत्कृष्ट गुणों से युक्त होना चाहिए।” 

डॉ० जाकिर हुसेन ने शिक्षक को विद्यार्थियों का सच्चा मित्र भी कहा है। उनका विचार है कि शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच फासला कम होना चाहिए, इससे दोनों के बीच घनिष्ठता स्थापित होगी। घनिष्टता विश्वास उत्पन्न करती है जो कि ज्ञानार्जन में सहायक है।

• डॉ० जाकिर हुसैन ने उसे अच्छा शिक्षक माना है जो विद्यार्थियों को शिक्षा के ज्ञान के अतिरिक्त अच्छा सेवक बना दे जिसमे सामुदायिक जीवन के गुण विकसित हो जाए।

विद्यार्थी (Student)

डॉ० जाकिर हुसैन का विद्यार्थियों के प्रति दृष्टिकोण बड़ा ही मनोवैज्ञानिक रहा है। उन्होंने विद्यार्थियों पर वाह्य ज्ञान के थोपे जाने का विरोध किया है। 

• उन्होंने शिक्षा के द्वारा ऐसे विद्यार्थी की कल्पना की है जो स्वार्थी न हो अर्थात् अपना ही विकास न करें बल्कि समाज की सेवा के लिए अपना जीवन अर्पित कर सकें।  

• विद्यार्थी, शिक्षा को जीवन को सुखी बनाने का ही साधन न माने बल्कि उनमें उचित या अनुचित के विश्लेषण की क्षमता भी होनी चाहिए। इस सन्दर्भ का उल्लेख उन्होंने किया है- “हमें सुख-दुख का चुनाव नहीं करना है वरन् श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ चुनाव करना है, उचित और अनुचित में चुनाव करना है, सेवा और सज्जा में चुनाव करना है।”

• डॉ० जाकिर हुसैन का मत है कि शिक्षा के द्वारा बालक के शरीर, मन और इन्द्रिय तीनों का सन्तुलित विकास हो।

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