प्राचीन विश्व की सभ्यताएं notes
पार्थियन सभ्यता
पार्थियन सभ्यता की मुख्य विशेषताएं (Main Features of Parthian Civilization)
परिचय (Introduction)-
पार्थियन साम्राज्य प्राचीन ईरान में 247 ईसा पूर्व से 224 ईस्वी तक एक प्रमुख ईरानी राजनीतिक और सांस्कृतिक शक्ति थी।
इसका संस्थापक पार्थिया का अर्सकीज प्रथम, जो कि पर्णि कबीले का प्रमुख भी था, ने तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व में पार्थिया क्षेत्र को जीत कर की थी। अर्सकीज प्रथम के नाम पर पार्थियन साम्राज्य को अर्ससाइड साम्राज्य भी कहा जाता है।
पार्थियन सभ्यता की मुख्य विशेषताए
पार्थियन साम्राज्य के सभ्यता के प्रशासनिक, सामाजिक , आर्थिक आदि सांस्कृतिक तत्व के मूल स्रोत हखामनीषी काल मे विकसित हुए हैं। किंतु इन पर यूनानी सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न तत्वों का भी प्रभाव पड़ा है जो की पार्थियन सभ्यता में दृष्टिगोचर होता है।
पार्थियन साम्राज्य के सभ्यता की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार है-
राजनीतिक संगठन
पार्थियनों का राजनीतिक संगठन अधिकांशतः पारसीक आदर्शों पर आधारित था। इन्होंने इस क्षेत्र में कोई मौलिकता न दिखायी। सामन्तवादी व्यवस्था जारी रखी गयी। क्लासिकल लेखकों ने पार्थियनों के अठारह सामन्त राज्यों का उल्लेख किया है। इनमें ग्यारह बड़े तथा सात छोटे सामन्त राज्य थे। बड़े सामन्त राज्यों में मीडिया, अर्मीनिया, एलीमाइज, पर्सिस आदि थे। इनमें से कइयों ने उदाहरणार्थ पर्सिस, एलीमाइज अथवा चरसीने ने अपनी मुद्राएं भी जारी की थी। शेष पार्थिया साम्राज्य प्रान्तों (सत्रपों) में विभाजित था। इनका शासन पार्थिया के बड़े सामन्तों के कुल के किसी व्यक्ति को दिया जाता था। इनका पद वंशानुगत होता था। घर्शमान पार्थियन साम्राज्य की सामन्तीय व्यवस्था की तुलना मध्यकालीन यूरोपीय सामन्त प्रथा से करते हैं। पार्थियन सामन्तों की सम्राट के प्रति दो प्रकार की जिम्मेदारी थी । प्रथमतः सम्राट को प्रतिवर्ष कर एवं उपहार देना तथा द्वितीयतः जरूरत पड़ने पर सैनिकीय सहायता उपलब्ध कराना। इन महासामन्तों के अधीन अनेक लघु सामन्त या सरदार रहते थे। ये लघु सरदार कृषकों तथा दासों पर शासन करते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि पार्थिया साम्राज्य में सामन्तशाही व्यवस्था थी। घर्शमान इसकी उपमा ऐसे पिरामिड से करते है, जिसके आधार पर कृषक तथा सर्फ तथा शिखर पर महासामन्त थे ।
राजपद वंशानुगत नहीं था। राजा का चुनाव प्रायः एक ही कुल (अर्साइड कुल) से किया जाता था। किन्तु ऐसा ही अनिवार्यतः होता था, ऐसी बात नहीं है। राजकुमारों में से कोई भी व्यक्ति राजा चुन लिया जाता। चुनाव के बाद सेनापति इसका राज्याभिषेक सम्पन्न कराता था। हखामनिषी शासकों की तरह पार्थियन सम्राट भी देवतुल्य समझा जाता था और इसे किसी प्रकार की क्षति पहुंचाना देवापराध माना जाता था।
सम्राट का दरबार शान-शौकत से भरा रहता था। यह बहुत कुछ हखामनीषी राजदरबारों के ही समान इनकी राजधानी तीन नगरों में थी। दजला के तट पर स्थित टेसिफन, मीडिया में एकबतना तथा पार्थिया था। में हेक्टॉमपाइलोस। टेसिफन इनकी जाड़े की राजधानी थी।
पार्थियनों के पास कोई स्थायी सेना नहीं थी। इनका सैनिक संगठन इनके सामाजिक गठन पर आधारित था। प्रत्येक सामन्त शासकों के पास निजी सेना रहती थी।
राज्य की आमदनी का मुख्य जरिया भूमिकर था। अलग-अलग भूभागों में यह अलग-अलग प्रकार का था। भूमिकर को तलमुड में तस्क कहा जाता था। इसे व्यक्तिकर भी कहते थे। यदि कोई व्यक्ति कर नहीं अदा करता था तो उसकी जायदाद राजा जब्त कर लेता था।
कुलीनों, सिपाहियों, पुरोहितों तथा अधिकारी वर्ग के सदस्यों को व्यक्तिकर से छूट थी । व्यक्तिकर के अलावा भी कई प्रकार के कर थे। नदीमार्ग, नमक तथा दासों के आयात-निर्यात पर भी कर लगाए जाते थे।
सामाजिक संगठन
पार्थियनकालीन ईरानी समाज यूनानियों तथा रोमनों के मिश्रण के कारण हखामनीषी ईरानी समाज से भिन्न था। प्लूटार्क तथा जस्टिन हमें बताते हैं कि पार्थियन समाज में दो वर्ग थे – (i) अल्पसंख्यक स्वतंत्र व्यक्ति तथा (ii) बहुसंख्यक दास। अल्पसंख्यक स्वतंत्र वर्ग में कुलीन (अजटन), सम्मानित परिवार तथा के राज्य के (राजकुल) सामन्त, पुजारी, लेखक, पदाधिकारी तथा श्रमिक आते थे किंतु पार्थिया में दासों की स्थिति की स्पष्ट जानकारी नहीं है। यहां दो प्रकार के दास थे। एक युद्धबंदी विदेशी तथा दूसरे ऋण के कारण बनाए गये अथवा स्वेच्छा से अपने को बेचकर बने दास। यूनानी तथा रोमन सम्पर्क के फलस्वरूप पार्थियनों का दासों के प्रति दृष्टिकोण उदारवादी हो गया। कुशल ईरानी दास शानदार कलाकृतियों के निर्माता हुए। जो पढ़े-लिखे थे, उन्हें राज्य में ऊंचे-ऊंचे पदों पर नियुक्त किया गया। कुछ तो राजपद पर भी प्रतिष्ठित गये।
पार्थियन समाज में निम्नवर्ग तथा उच्च वर्ग की सीमा में अन्तर करना कठिन हो गया।
पार्थियन समाज में परिवार पितृसत्तात्मक था। स्त्रियां पुरुषों के अधीन थी। संपन्न परिवारों में बहुविवाह प्रचलित था। स्त्री तथा पुरुष दोनों को तालाक की अनुमति थी। शिकार इनका प्रिय मनोरंजन था। साथ ही संगीत तथा वाद्य यंत्रों में भी इनकी अभिरुचि थी। स्त्री तथा पुरुष दोनों घुंघराले एवं लंबे बाल रखते थे और पुरूष मध्यम शैली का जामा एवं तंग पैजामा पहनते थे। स्त्री आंकड़े हुए कपड़े की पट्टी लपेटी थी तथा बालों में फूलों का गुच्छा लगा दी थी।
आर्थिक संगठन
पार्थियनों का आर्थिक जीवन मुख्यतः कृषि तथा व्यापार वाणिज्य पर आधृत था। कृषि उन्नति अवस्था में थी। यहां विदेशी फलफूल तथा सब्जियां जैसे दाख, खीरा ककड़ी, लहसुन, प्याज, केसर, चमेली आदि का उत्पादन किया जाता था । चीन से मंगा कर ये लोग गन्ने की खेती भी प्रारंभ कर दिए थे। कृषि के साथ- साथ पशुपालन भी उन्नति स्थिति में था। मुर्गीपालन अत्यन्त विकसित अवस्था में था ।
इस काल में कई प्रकार के उद्योगधंधे भी प्रचलित थे। मुख्यतः वस्त्रोद्योग, भाण्डोद्योग, चर्मोद्योग, लौहउद्योग तथा शीशाउद्योग उन्नति पर थे। उद्योग का प्रभाव व्यापार वाणिज्य पर पड़ा जो पार्थियन आर्थिक गठन का प्रमुख आधार बना। आन्तरिक व्यापार भी प्रगति पर था तथा बाजार बढ़े- चढ़े थे। बैंकिंग प्रथा विद्यमान थी, किन्तु विकसित अवस्था में नहीं थी। रजत तथा ताम्र मुद्राएं प्रचलित थीं। यातायात के साधन अच्छे थे। पार्थियनों के समय जितनी अच्छी सड़कों की व्यवस्था थी उतनी इसके पहले कभी नहीं थी। पार्थियन शासकों ने इस दिशा में विशेष सक्रियता दिखायी।
धर्म
पार्थियनों के धार्मिक जीवन एवं विश्वासों के विषय में अधिक जानकारी नहीं हैं। ये खानाबदोश जाति के थे । अतः अनुमान लगाया गया है कि इनमें आदिम विश्वास तथा उपासना विधियां अवश्य प्रचलित रही होंगी। ये प्राकृतिक शक्तियों के उपासक थे।
पार्थियनों में शासकीय परिवार में रक्तरंजित बलिप्रथा प्रथम शती ई में प्रचलित थी । ईरान के आने के बाद पार्थियनों के धार्मिक जीवन में परिवर्तन आया। पुरातात्विक विवरणों से पता चलता है कि ये अपने राजवंश के आदि संस्थापक अर्सकीज की पूजा करने लगे। यह पार्थियनों की पितृपूजा का प्रमाण है। पार्थियनों में मद्य निषेध, वर्जितकर्म तथा तंत्र मंत्र जैसी नीरस प्रथाएं भी प्रचलित थी।
पार्थियनों मे अहुरमज्दा, सूर्य पूजा ( मिथ्र ), अनाहिता देवी ( जल देवी ) की उपासना भी की जाती थी। अनाहिता देवी के लिए अनेक मंदिर भी बनवाए गए थे। लीडिया में इस देवी को “लेडी ऑव बैक्ट्रिया” कहा जाता था ।
पार्थियन अभिचार तथा जादू टोना मे भी विश्वास करते थे और ये विदेशी धर्मो के प्रति सहिष्णु थे।
कला एवं स्थापत्य
पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार पार्थियन सभ्यता में नगर निर्माण, राजप्रासादनिर्माण , मूर्तिकला, स्थापत्य कला तथा चित्र कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई थी.
मूर्तिकला – पार्थियन मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण ईरान के पुरातन सांस्कृतिक केन्द्रों से उपलब्ध हुए हैं। इनका निर्माण ज्यादातर कांस्य तथा संगमरमर की सहायता से किया गया है। इनका निर्माण ईरानी तथा यूनानी-ईरानी शैली में किया गया है। ये मूर्तियां ज्यादातर शासकों, महारानियों तथा देवी-देवताओं की हैं। पार्थियन मूर्तिकला के अन्तर्गत एक पशु आकृति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। एक कांस्य धूपदान में पशु आकृति में एक हत्था लगा है। पशु का शारीरिक गठन अत्यन्त सुदृढ़ है। उसके आगे के दो पैर धूपदान पर टिके हैं।
उद्भुत कला- मूर्तिकला के साथ-साथ पार्थियन कलाकारों ने उद्भुत कला (रिलीफ स्कल्पचर) में भी अच्छी प्रगति की थी। इस कला का उपयोग कलाकारों ने राजप्रासादों, देवालयों तथा अन्य भवनों की दीवालों को अलंकृत करने के लिए किया। पार्थियन उद्भुत कला का प्राचीनतम उदाहरण मिथिदतीज द्वितीय का है,जिसे 80 ई.पू. में बिसुटुन में तक्षित किया गया था।
चित्रकला- पार्थियनकाल ईरान में चित्रकला के विकास के लिए भी प्रशस्त रहा। ईंट की दीवालों पर गाढ़े लेप लगाकर चित्रकारी की गयी थी। इसके उदाहरण बेबिलोनिया, असीरिया तथा कुह-इ-ख्वाजा से मिले हैं। ये रंग तथा विविधता की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध हैं। इनमें आयत, वृत्त, फूल-पत्तियां, संगीतज्ञ, देवी-देवता तथा एक राजारानी के अंकित हैं। घर्शमान का विचार है कि इस पर हेलेनिस्टिक प्रभाव स्पष्टतः दिखायी पड़ता है।
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