रोम साम्राज्य में ईसाई धर्म का विकास (Development of Christianity under the Roman Empire)
परिचय (Introduction )
ईसाई धर्म की उत्पत्ति और विकास रोम साम्राज्य में ही नही अपितु संपूर्ण विश्व इतिहास में एक अति महत्त्वपूर्ण तथा युगान्तरकारी घटना के रूप में स्मरणीय है। इसके उद्भव के समय किसी को विश्वास नहीं था कि थोड़े समय में ही यह रोम का ही नही बल्कि विश्व का महान धर्म बन जायेगा तथा रूस, यूरोपीय देश अमेरिका आदि के निवासी अपने लोक तथा परलोक को बनाने के लिए आश्रय लेंगे।
ईसाई धर्म की उत्पत्ति और विकास
दुर्भाग्य से इस महान धर्म के संस्थापक इशु या ईसा (जीसस) के जीवन तथा प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा के विषय में जानकारी का अभाव है।
आम मान्यता है कि इनका जन्म सम्राट आगस्टस के शासनकाल मे हुआ था। न्यु टेस्टामेण्ट मे इनका जन्म कुंवारी कन्या मेरी तथा मिरियम से बताया गया है। किन्तु पॉल , जॉन तथा मैथ्यु एवं ल्यूक के अनुसार जीसस जोसेफ तथा मिरियम के विवाह के फलस्वरूप पैदा हुए थे। इतिहासकार हेज के अनुसार इनका जन्म बेथलेहेम मे हुआ था किन्तु इनका अधिकांश जीवन नाजरेथ में बीता । इसलिए इन्हें जीसस ऑव नाजरेथ कहा जाता है । इनकी जन्मतिथि 25 दिसम्बर मानी जाती है।
ईसा के पिता साधारण स्थिति के यहूदी बढ़ई थे। ईसा को ईशु नाम दिया गया । इसे ही यूनानी जेसोस तथा रोमन जीसस कहने लगे। इनका व्यक्तित्व आकर्षक, मृदुभाषी, सहृदय तथा उदार था। ये धनिको की अपेक्षा गरीबो के बीच उठना बैठना पसन्द करते थे। यहूदी सभागारों में भाग लेना तथा धर्मशास्त्रों को प्रसन्नता से सुनना इनका स्वभाव बन गया था। यहूदी विचारो का जीसस के ऊपर प्रभाव पड़ा और ये भी इसके कट्टर समर्थक बन गये।
आगस्टस ने फिलिस्तीन के दक्षिणी भाग को जूडा तथा शेष भाग को गैलिली नाम दिया । उस समय जूड़ा के आस पास के लोग राजनीतिक तथा आर्थिक शोषण के शिकार थे तथा धार्मिक ताना बाना अंधविश्वास तथा जड़ता से ग्रसित था इसी विषम परिस्थिति में जॉन बैप्टिस्ट, जो जीसस के मौसेरे भाई थे, आडम्बर, अनाचार, पाखण्ड, आत्मशुद्धि एव प्रायश्चित्त के विरुद्ध खडे हो गए । इस यहूदी सन्त मे घोषित किया कि न्याय का अंतिम निर्णय (लास्ट जजमेंट ) निकट आ गया है । अतः पापियो को सावधान होकर ईश्वर के राज्य किंग्डम ऑव गाड ) के स्वागत की तैयारी करनी चाहिए । जॉन के विचारों का जीसस के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा और ये अपने मौसेरे भाई से मिलने जार्डन आए। जॉन तथा जीसस की मुलाकात तथा जॉन के विचारो से यहुदी शासक हेरोड एण्टिपस बहुत नाराज हुआ और उसने जॉन को प्राणदण्ड दिया। जॉन की मृत्युदंड की दुखद घटना से जीसस के भावुक , कोमल हृदय को झकझोर दिया। इनमे अचानक परिवर्तन आ गया। इनका साहस तथा ज्ञान मुखरित हो गया। इन्होंने जॉन के अधूरे काम को पूरा करने का संकल्प लिया तथा अपने मिशन पर चल पड़े। इन्होंने एक नया स्वतंत्र धार्मिक सिद्धांत खड़ा किया जिनका सार इस प्रकार है-
i) ईश्वर सभी का जनक है। ईश्वर की दृष्टि में मनुष्य मनुष्य में कोई अंतर नही। सब उनके दया और स्नेह के पात्र है।
ii) हमे दूसरो के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जिस प्रकार के व्यवहार की हम अपेक्षा करते है।
(iii) अनाचारी तथा पापी अपने पाप को स्वीकार कर, ईश्वर से शुद्ध एवं निर्मल हृदय होकर क्षमा एवं दया की प्रार्थना कर पाप के भयंकर दुष्परिणाम तथा नरक की घोर यातना से बचने का प्रयास करें।
(iv) मानव मात्र का प्रमुख ध्येय प्रेम एवं क्षमा है। शत्रु के साथ भी मनुष्य को प्रेम एवं क्षमा का बर्ता करना चाहिए।
(v) स्वार्थ, पाखण्ड, आडम्बर आदि से दूर रहना चाहिए तथा धार्मिक समारोहों का आयोजन नहीं करना चाहिए। ईश्वर प्राप्ति का एक ही उपाय है- लोगों की निःस्वार्थ सेवा मानव जाति की सेवा ही ईश्वर की सच्ची अराधना है।
(vi) ईश्वर का राज्य मनुष्य के अन्तःकरण में है। उसे प्राप्त करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र प्रयत्नशील हो जाना चाहिए। मंदिर तथा मूर्ति का कोई महत्व नहीं है। ईश्वर प्रत्येक जीव की आत्मा में तथा सत्य में वास करता है।
(vii) न्याय, सदाशयता, सहानुभूति, करुणा, दया, सदाचार तथा सरल एवं संयत जीवन से बढ़कर कुछ नहीं है। मनुष्य के जीवन का मूल सार त्याग में है। धन संचय ईश्वर प्राप्ति में बाधक है। धनी व्यक्ति के लिए स्वर्ग राज्य में प्रवेश करना उतना ही असंभव है जितना सुई के छेद से ऊंट का निकलना।’
(viii) मनुष्य की पूजा चाहे वह कितना बड़ा ही क्यों न हो, अधर्म तथा आपत्तिजनक है। सम्राट को देवत्व पद देना सर्वथा निन्दनीय है।
(ix) एक दिन विश्व का अन्त सुनिश्चित है। उस समय सभी मृत प्राणी पुनर्जीवित होंगे अर्थात कब्रों से बाहर आयेंगे तथा सर्वत्र स्वर्गराज्य (किंग्डम ऑव हेवेन) की स्थापना होगी। यह स्वर्गराज्य उदात्त मानवीय भावनाओं तथा सदाचार पर आधारित होगा। इसमें सर्वत्र न्याय, नियम, करुणा, प्रेम, विश्वास, त्याग, सेवा आदि होंगे।
इन उपदेशों को लोग दिलचस्पी से सुनते तथा उसे अमृतवत ग्रहण करते गये। धीरे-धीरे इनके समर्थकों की संख्या बढ़ती गयी। ये इन्हें अपना तथा इजरायल का सम्राट मानने लगे। इनकी बढ़ती लोकप्रियता शासकों, उनके प्रतिनिधियों, धनिकों, पुरातन-पंथियों तथा पुरोहितों के लिए चिन्ता का विषय बन गयी। पुरोहितों ने निर्णय किया कि सम्पूर्ण राष्ट्र के बर्बाद होने के बजाय एक व्यक्ति की मृत्यु बेहतर है। अतः उन्होंने मिलकर इन्हें खतरनाक इन्सानमा हुए इन पर नवयुवकों को वर्गलाने तथा पथभ्रष्ट करने का इल्जाम लगाकर राष्ट्रीय धर्म तथा रोमन साम्राज्य “के विरुद्ध विद्रोह फैलाने का दोषी मान कर इन्हें जेरूसलेम में बन्दी बना कर जूडिया के रोमन शासक पोण्टियस पाइलेट के समक्ष उपस्थित किया। यहूदी धर्मान्ध पुरोहितों ने इन्हें मौत की सजा की सिफारिश की। गर्वनर ने बिना सोचे-समझे इस दुखद सजा की संस्तुति की तथा जेरूसलेम के बाहर गोलगोथो की पहाड़ी पर 33 वर्ष की युवावस्था में इन्हें शूली पर चढ़ा दिया गया। यह दुखद एवं हृदयविदारक घटना 30 ई. के आस-पास की है। यह विश्व इतिहास की एक अजीब एवं प्रभावोत्पादक घटना रोमन सम्राट टाइबेरियस के शासनकाल की है।
ईसाई धर्म का प्रचार एवं प्रसार
ईसा की मृत्यु के अनन्तर रोम में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार तीन चरणों में हुआ। प्रथम चरण 30 ई. से 95 ई. तक रहा। इस अवधि में धर्म-प्रचार में प्रचारकों की भूमिका श्लाघनीय रही। द्वितीय चरण में इसका विकास 96 ई. से 305 ई. के बीच हुआ। इस अवधि में इसे रोमन शासकों के प्रचण्ड विरोध का सामना करना पड़ा। विकास का तीसरा चरण 306 ई. से 325 ई. तक रहा। इसी अवधि में यह अपनी उन्नति के शिखर पर पहुंचा तथा राजधर्म के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।
ईसाई धर्म के प्रचार एवं प्रसार का प्रथम चरण–
इस चरण में ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में मुख्य भूमिका प्रचारकों की रही। ईसा के कुल बारह शिष्य थे। इन्हें धर्मप्रचारक या ईसा का पट्टशिष्य (अपॉस्टिल्स) कहा जाता था। इनमें पीटर, पाल तथा जॉन मुख्य थे। इन लोगों का विश्वास था कि पृथ्वी पर स्वर्ग की स्थापना हेतु ईसा पुनः अवतार ग्रहण करेंगे। ये मानवसेवा को प्रधान कर्त्तव्य मानते थे। दरिद्र, व्याधिग्रस्त, लूले- लंगड़े, कोढ़ी आदि की सेवा बड़े आनन्द तथा रुचि के साथ करते थे। धीरे-धीरे ईसाई धर्मानुयायियों की संख्या में तेजी से इजाफा होता गया। केवल नाजरेथ में इनकी संख्या आठ हजार पहुंच गयी।
विकास का द्वितीय चरण–
रोमन सम्राटों का विरोध – रोम में 40 ई. तक ईसाई धर्म की जड़े जम गयीं। प्लिनी के अनुसार ईसाई धर्म संक्रामक रोग की तरह नगर-नगर तथा गांव-गांव में फैलता जा रहा था और इसके अनुयायियों की संख्या दिन-दिन बढ़ती जा रही थी। इटली तथा अफ्रीका में यह मिश्र धर्म के प्रतिद्वंदी के रूप में उभर आया तथा एशिया माइनर की आधी आबादी चौथी शती ई. के पूर्वार्ध में ईसाई हो गयी थी। किन्तु ईसाई धर्म की उन्नति रोमन शासकों की आंख की किरकिरी बन गयी। इसके कारण अज्ञात नहीं हैं। ईसाई अपने को अन्य लोगों से न केवल अलग रखते थे प्रत्युत सम्राटपूजा, देवपूजा, मूर्तिपूजा आदि के विरोधी भी थे। ये अहिंसावादी थे। राजकीय सेवाओं में जाने से न केवल बचते थे प्रत्युत इसकी आलोचना भी करते थे। ये रोमन हिंसक खेलों, मनोरंजनों तथा समारोहों में हिस्सा लेने की तो दूर, इसकी शख्त निन्दा करते थे। रोमन शासकों ने अपने को देवतुल्य घोषित कर अपनी पूजा पर जोर दिया, किन्तु ईसाइयों ने इस प्रथा का विरोध किया। रोमन शासक साम्राज्यवादी, युद्धप्रिय तथा विजिगिष्णु थे, जबकि ईसाई युद्ध विरोधी, अहिंसावादी थे तथा त्याग, प्रेम एवं भाई-चारे में विश्वास करते थे। ये रोमन रीति-रिवाज, विवाह, मूर्तिपूजा, प्रवृत्तिमूलकजीवन तथा भौतिकता के विरोधी थे। ये रोम के कोरिंथ, एथेंस, एण्टिओक आदि विभिन्न नगरों में गिरिजाघरों की स्थापना कर इनमें सभाएं आयोजित करने लगे। धीरे-धीरे गुलामी, दीन-हीनता तथा दलित का जीवन व्यतीत करने वाले इसकी ओर खिंचते गये। इससे रोमन सम्राट इनसे सशंकित हो गये । दैवयोग से नीरो के शासनकाल में अकस्मात रोम में 16 जुलाई 64 ई. में आग लग गयी। इसमें रोम की अपूर्णनीय क्षति हुई। ईसाई -विरोधियों ने इसके लिए ईसाइयों को जिम्मेदार ठहराया। फिर क्या था? नीरो इनका शख्त विरोधी हो गया। उसने ईसाई धर्मपालन अपराध घोषित कर दिया। इनके साथ अतिशय क्रूरता का व्यवहार किया गया। बहुसंख्यक ईसाई मौत के घाट उतार दिये गये। पीटर तथा पाल इसके समय ही प्राणदण्ड प्राप्त किये थे ।
विकास का तृतीय चरण
ईसाई धर्म की उन्नति का काल ‘सांच को आंच – कहा’ कहावत ईसाई धर्म के साथ चरितार्थ हुई। रोमन शासकों के दमनात्मक रवैय्ये का प्रभाव ईसाई धर्म पर क्षणिक रहा। तीसरी शती ई. के अन्त तथा चौथी शती ई. के प्रारंभ होते-होते यह अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुंच गया। धीरे-धीरे रोमन सम्राटों के दृष्टिकोण बदले। गलेरियस ने सहिष्णुता की एक राजाज्ञा जारी की। ईसवी सन् 312 में कान्स्टैन्टाइन जब अपने विरोधियों से राजसत्ता के लिए संघर्ष करते हुए जीवन-मृत्यु के युद्ध में फंसा था तभी एक रात उसे स्वप्न में आकाश में क्रास का चिह्न देखा। उसे स्वप्न में ही बताया गया कि ईसा उसे इस चिह्न को राष्ट्रीय ध्वज में स्थान देने का आदेश दे रहे हैं। उसने तत्काल राष्ट्रीय ध्वज पर इगेल के स्थान पर क्रास का चिह्न बना दिया और स्वयं ईसाई धर्म अंगीकार कर लिया तथा इसे राजधर्म घोषित कर दिया।
ईसाइयों की जब्त की गयी सम्पत्ति वापस कर दी गयी । ईसाइयों के हित में 320 ई. में कुछ कानून बनाए गये जिसके तहद बिशपों को न्यायाधीश के अधिकार दिए गये तथा चर्चों को कर से मुक्त किया गया। ईसाई धर्म मानने वाले कुछ विशेष सुविधा पाने लगे। जरूरतमंद ईसाइयों की आर्थिक सहायता की गयी तथा कान्स्टैन्टिनोपुल एवं अन्य नगरों में चर्च बनवाए गये। इस प्रकार ईसाई धर्म को पूर्ण संरक्षण देकर इसे राजधर्म घोषित कर दिया गया। रोम ईसाई धर्म का प्रधान केन्द्र बन गया और रोमन साम्राज्य एक प्रकार से ईसाई साम्राज्य बन गया।
निष्कर्ष
ईसा ने जिन परिस्थितियों में ईसाइयत का प्रचार-प्रसार प्रारंभ किया वे अत्यन्त विषम, प्रतिकूल तथा संकटपूर्ण थीं। परम्परावादी एवं दकियानूसी यहूदी ही नहीं, प्रत्युत शासक भी इसके विरोध में खड़े थे। किन्तु असाधारण प्रतिभा एवं व्यक्तित्व के धनी ईसा के अदम्य उत्साह, कर्मठता, त्याग, दृढ़संकल्प, आत्मविश्वास तथा अविश्रान्त प्रयास के फलस्वरूप रोमन शासकों के क्रूर एवं सशक्त विरोध के बावजूद भी यह धर्म न केवल रोम अपितु यूरोप का एक सशक्त एवं सार्वभौम धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो गया और इस प्रकार इसका उद्भव एवं विकास विश्व के धार्मिक इतिहास की अद्वितीय घटना है।
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