हम्मूराबी की विधि संहिता और उसका महत्व | Hammurabi ki vidhi sanhita aur uska mahtva

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Q- हम्मूराबी की विधि संहिता के महत्व का विवेचना कीजिए।

हम्मूराबी की विधि संहिता और उसका महत्व | Hammurabi ki vidhi sanhita aur uska mahtva






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परिचय – हम्मूराबी बेबिलोनिया का एक राजा था। वह प्रथम बेबिलोनिया राजवंश का छठा राजा था। उसने 1792 ईसापूर्व से 1750 ईसापूर्व तक मध्य मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक) में शासन किया था। 

हम्मूराबी की विधिसंहिता

बेबिलोनियन प्रशासन को व्यवस्थित करने तथा उसे सशक्त बनाने में हम्मूराबी का महत्वपूर्ण योगदान है। हम्मूराबी की विधिसंहिता बेबिलोनियन साम्राज्य के प्रशासन के दर्पण के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होती है। हम्मूराबी एक विजेता एवं साम्राज्यनिर्माता के साथ-साथ एक कुशल प्रशासक एवं राजनीतिज्ञ था। यह जानता था कि सुव्यवस्थित शासन ही बेबिलोनियन साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान कर सकता है। इसकी उत्कृष्ट अभिलाषा थी कि समस्त साम्राज्य को एक शासनतंत्र में ला दिया जाय। इसी उद्देश्य से इसने प्रसिद्ध विधिसंहिता की रचना की थी। विधि संहिता लिखित रूप में थी। इसकी रचना इसने अपने शासनकाल के अंतिम दो-तीन वर्षों में की थी।

हम्मूराबी के कानूनों का विशाल संग्रह मार्दुक के देवालय के आठ फीट ऊंचे गोल बेलनाकार पत्थर पर खुदा हुआ था जिसमे सम्राट को सूर्य देवता से कानून प्राप्त करता हुआ दिखाया गया है -इससे हम्मूराबी जनता को यह दिखाना चाहता था कि कानून दैविक शक्ति की देन है। 

विधि संहिता की मुख्य धाराएं – 

इस विधि संहिता में 285 धाराएं तथा 12 अध्याय थे। इसमें 3600 पक्तियां है। इसकी मुख्य धाराएं निम्नलिखित थी –

1. राज्य अपराध से सम्बन्धित वाद में साक्षियों को जो धमकाता था उसे मृत्युदण्ड दिया जाता था। 

2.देवालय अथवा राजाप्रासाद में चोरी करने वाले तथा चोरी का माल रखने वाले प्राणदण्ड प्राप्त करते थे।

3. यदि कोई व्यक्ति मन्दिर से पशु चुरा लेता था तो उसे पशु के मूल्य का तीस गुना अर्थदण्ड देना पड़ता था। लेकिन यदि पशु किसी निम्न वर्ग के सदस्य के यहां से चुराया जाता था तो अर्थदण्ड मूल्य का दस गुना देना पड़ता था। 

4. साक्ष्य एवं अनुबन्धपत्र के बिना सोना, चांदी, दास, वृष, मेष एवं गर्दभ खरीदने या उसे रखने के लिए चोर की तरह प्राणदण्ड का विधान था।

5. यदि कोई कर्जदार अपने साहु को अपनी पत्नी, पुत्र और कन्या दे देता था तो तीन वर्ष तक कार्य कराने के बाद उन्हें मुक्त कर दिया जाता था।

6. पतिगृह के बाहर समय व्यतीत करने, मूर्खता से व्यवहार करने, पति की सम्पत्ति का दुरुपयोग करने और उसकी अवज्ञा करने पर पति पत्नी को तलाक दे सकता था। ऐसी स्थिति में दहेज में मिली सम्पत्ति का कोई भाग पत्नी को नहीं मिलता था। लेकिन यदि वह यह नहीं कहता था कि में तुम्हें तलाक देता हूँ” तो वह दूसरी पत्नी रख सकता था लेकिन प्रथम पत्नी भी एक दासी की हैसियत से रह सकती थी। सन्तति के अभाव में पुरुष स्त्री को तलाक दे सकता था, किन्तु इस स्थिति में भी उसे दहेज की सम्पत्ति मिलती थी। यदि कोई सी किसी परपुरुष के साथ पकड़ ली जाती थी तो उसे जल में डुबो दिया जाता था।

7. पति द्वारा अपशब्द कहने पर निर्दोष पत्नी दहेज में प्राप्त सम्पत्ति के साथ पितृगृह प्रत्यावर्तित होने की अधिकारिणी थी।

8. पिता को चोट पहुंचाने वाले व्यक्ति के हाथ काट लिए जाते थे।

9. समान सामाजिक स्तर में किसी व्यक्ति की आंख फोड़ देने पर अपराधी की भी आंख फोड़ दी जाती थी। लेकिन यदि किसी निर्धन व्यक्ति की आंख फोड़ी जाती थी अथवा अंगछेद किया जाता था तो अपराधी को चांदी का एक मिना अर्थदण्ड देना पड़ता था।

10. किसी व्यक्ति द्वारा चोट पहुंचाने से यदि किसी शिष्ट महिला का गर्भस्राव हो जाता था तो अपराधी को दम शेकेल अर्थदण्ड देना पड़ता था लेकिन यदि महिला की मृत्यु हो जाती थी तो अपराधी की पुत्री मृत्युदण्ड प्राप्त करती थी।

11. चिकित्सक द्वारा किसी घाव के आपरेशन में जिसे वह एक तांबे के उस्तूरे से करता था, रोगी की मृत्यु हो जाने पर अथवा आंख के आपरेशन में आंख नष्ट हो जाने पर चिकित्सक के हाथ काट लिये जाते थे। पर मृत्यु यदि किसी के दास की होती थी तो चिकित्सक को उसी मूल्य का एक दास देना पड़ता था।

12. किसी मकान के धराशायी हो जाने पर यदि गृहस्वामी की मृत्यु हो जाती थी तो शिल्पी को मृत्यु- दण्ड दिया जाता था, यदि मृत्यु मकान मालिक के पुत्र की होती थी तो शिल्पी के पुत्र को प्राणदण्ड दिया जाता था और यदि मृत्यु मकान मालिक के दास की होती थी तो मृत्युदण्ड शिल्पी के दास 1 को दिया जाता था।

13. यदि कोई नाविक किराये पर जलपोत लेता था और उसे असावधानी से परिचालित कर क्षतिग्रस्त अथवा नष्ट कर देता था तो उसे उसके मालिक को दूसरा जलपोत देना पड़ता था।

14. अपराध न सिद्ध होने पर वादी को मृत्युदण्ड दिया जाता था। 

15. अभिचार के अपराध में अपराधी को नदी में फेंक दिया जाता था और यदि वह डूब जाता था तो उसकी सम्पत्ति वादी को मिल जाती थी। 

16. यदि कोई व्यक्ति किसी भगोड़े दास या दासी को अपने घर में शरण देता था और शासन को इसकी सूचना नहीं देता था तो उसे प्राणदण्ड मिलता था।

17. यदि कोई सैनिक या अधिकारी राज्यादेश पर किसी अभियान में न जाकर अपने स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति को भेजता था तो उसे प्राणदण्ड दिया जाता था तथा उसकी जायदाद एवजी को मिल जाती थी।

18. यदि सेवाकाल में कोई सैनिक या अधिकारी शत्रु द्वारा पकड़ लिया जाता था और उसकी सम्पत्ति किसी दूसरे को मिल जाती थी तो उसके वापस आने पर पुनः वह जायदाद उसे मिल जाती थी।

19. यदि कोई सैनिक या अधिकारी सेवाकाल में मार डाला जाता था तो उसकी जायदाद उसके पुत्र को मिल जाती थी किन्तु उससे यह आशा की जाती थी कि वह भी राज्य की सेवा करेगा।

20. यदि कोई मद्यविक्रेता स्त्री अपनी दुकान पर एकत्र डाकुओं की सूचना राजभवन में नहीं देती थी तो उसे प्राणदण्ड दिया जाता था।

21. यदि किसी व्यक्ति की प्रथम विवाहिता तथा दासी दोनों से बच्चे हो जाते थे और अपने जीवन काल में वह कभी दासी के बच्चे को अपना बच्चा कह देता था तो उसकी मृत्यु के बाद दोनों को उसकी सम्पत्ति में हिस्सा मिलता था। किन्तु यदि जीवन काल में वह उसे अपना बच्चा नहीं कहता था तो उसे (दासीपुत्र) जायदाद में हिस्सा नहीं मिलता था।

                 इस प्रकार हम हम्मूराबी की विधि संहिता की उक्त धाराओं से इसके स्वरूप से परिचित हो जाते है। और हमे यह भी ज्ञात होता है कि हम्मूराबी ने दंड निर्धारण मे “जैसे को तैसा सिद्धांत ” था।

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हम्मूराबी की विधि संहिता का महत्व – 

हम्मूराबी की विधि संहिता समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए महत्त्वपूर्ण थी। हम्मूराबी ने अपनी विधिसंहिता की सहायता से सामाजिक समन्वय एवं सन्तुलन स्थापित करने का प्रयत्न किया। विधिसंहिता के अनुसार बेबिलोनियन समाज तीन वर्गो – (i) उच्च, (ii) सर्वसाधारण एवं (iii) दास – में विभाजित था। प्रथम वर्ग पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी तथा इनकी सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाता था। इन्हें हानि पहुंचाने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था, पर यदि वही अपराध सर्वसाधारण वर्ग के सदस्य के साथ किया जाता था तो कम दण्ड दिया जाता था। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं था कि उच्च वर्ग के सदस्यों को मनमानी करने की छूट थी। 

दासों की स्थिति सुधारने की दिशा में भी हम्मूराबी ने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वामी के अतिरिक्त अन्य कोई न तो उन पर अधिशासन कर सकता था, न अत्याचार ही । स्वदेश के अतिरिक्त उन्हें विदेशों में बेचा भी नहीं जा सकता था। उन्हें सम्पत्ति संचय एवं संग्रह की सुविधा मिली थी। संचित धन के माध्यम से वे अपनी स्वतंत्रता खरीद सकते थे। ऋणग्रस्त व्यक्ति ऋण की अदायगी न करने पर दास बना दिये जाते थे, किन्तु कुछ दिन बाद उन्हें छोड़ दिया जाता था।

सामाजिक समन्वय एवं संतुलन की ही भांति हम्मूराबी अपनी विधिसंहिता के माध्यम से आर्थिक संगठन में भी समन्वय एवं सन्तुलन स्थापित करना चाहता था। इसके आधार स्तम्भ तीन थे – कृषि, वाणिज्य एवं उद्योगधन्धे। इसमें कृषिकर्म का स्थान महत्वपूर्ण था। इसके लिए उपादेय एवं उपयुक्त साधनों की व्यवस्था राज्य की ओर से की जाती थी। व्यापारिक गतिविधियों का नियमन एवं नियंत्रण भी विधिसंहिता के अनुसार होता था। व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। कृषि एवं वाणिज्य के साथ-साथ यहां अनेक प्रकार के उद्योगधन्धे प्रचिलत थे। वस्त्रनिर्माण, चर्मोद्योग एवं धातुउद्योग की दृष्टि से बेबिलोन तत्कालीन विश्व में प्रसिद्ध माना जाता था। इस पर भी हम्मूराबी की विधिसंहिता का नियंत्रण था।

उपर्युक्त विवेचन से हम्मूराबी की विधिसंहिता के बहुव्यापी उद्देश्यों से हम परिचित हो जाते हैं। निस्संदेह बेबिलोनिया संस्कृति के निर्माण में इसका महत्वपूर्ण योगदान था। हम्मूराबी की विधिसंहिता धर्मसापेक्ष और धर्मनिरपेक्ष थी। इसमें दोनों प्रकार की भावनाएं निहित थीं ।

निष्कर्ष – 

इस प्रकार हम्मूराबी की विधि संहिता सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध एवं सुस्पष्ट थी । विल ड्युरैण्ट के अनुसार एक हजार वर्ष बाद बने असीरियन कानूनों से यह कहीं अधिक विकसित थी और कई मानों में तो यह किसी भी आधुनिक यूरोपीय कानूनों की बराबरी कर सकती है। रोमन काल के पूर्व इससे श्रेष्ठ कानून नहीं मिलते है ।

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