समुद्रगुप्त के सामरिक अभियान का विवरण दीजिए| Samudragupta ke saamrik abhiyan ka vernan

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समुद्रगुप्त के दक्षिण पथ अभियान का विवरण दीजिए। 

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समुद्रगुप्त के सामरिक विजय का विवरण दीजिए। 

समुद्रगुप्त के सामरिक अभियान का विवरण दीजिए| Samudragupta ke saamrik abhiyan ka vernan

उत्तर –   समुद्रगुप्त ‘परक्रमाङ्क’ (350-375 ईस्वी)

चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् उसका सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। वह लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से उत्पन्न हुआ था। समुद्रगुप्त न केवल गुप्त वंश के बल्कि सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में गिना जाता है। निःसन्देह उसका काल राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जा सकता है।

समुद्रगुप्त का सामरिक अभियान –

राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के बाद समुद्रगुप्त ने अपना अभियान प्रारम्भ किया। वह एक महान विजेता था जिसकी दिग्विजय का उद्देश्य प्रयाग प्रशस्ति ‘के शब्दों में ‘सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना’ (धरणिबन्ध) था। प्रयाग प्रशस्ति उसकी विजयों का पूरा-पूरा विवरण हमारे समक्ष उपस्थित करती है जिसे हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रख सकते हैं- –



 (1) आर्यावर्त्त का प्रथम युद्ध – 

अपनी दिग्विजय की प्रक्रिया में समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तर भारत में एक छोटा-सा युद्ध किया जिसमें उसने तीन शक्तियों को पराजित किया। इसका उल्लेख प्रशस्ति की तेरहवीं-चौदहवीं पंक्तियों में मिलता है। इन शक्तियों के नाम इस प्रकार दिये गये हैं-

अच्युत—यह संभवतः नागवंशी राजा था जो अहिच्छत्र में शासन करता था। इस स्थान की पहचान बरेली (उ0 प्र0) में स्थित रामनगर नामक स्थान से की जाती है ‘जहाँ से ‘अच्यु’ नामांकित कुछ सिक्के प्राप्त हुये हैं।

नागसेन – जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, वह एक नागवंशी राजा था जो पदमावती (ग्वालियर जिले में स्थित पद्मपवैया) में शासन करता था ।

कोतकुलज– तीसरे शासक का नाम नहीं मिलता, बल्कि यह कहा गया है कि वह कोत वंश में उत्पन्न हुआ था। 

उपर्युक्त  युद्ध को ‘आर्यावर्त्त का प्रथम युद्ध’ कहा जाता है। मनुस्मृति में ‘पूर्वी समुद्र लेकर पश्चिमी समुद्र तक और विन्ध्याचल तथा हिमालय पर्वतों के बीच स्थित भाग को आर्यावर्त्त की संज्ञा प्रदान की गई है इसके अतिरिक्त के0 पी0 जायसवाल का विचार है कि इन तीनों राजाओं ने एक सम्मिलित संघ बना लिया था और समुद्रगुप्त ने इस संघ को  कौशाम्बी में पराजित किया था।  

(2) दक्षिणापथ का युद्ध

प्रयाग प्रशस्ति में आर्यावर्त के अभियान के बाद दक्षिणापथ के अभियान का उल्लेख है। ‘दक्षिणापथ’ से तात्पर्य उत्तर में विन्ध्य पर्वत से लेक दक्षिण में कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के बीच के प्रदेश से है। सुदूर दक्षिण के तमिल राज्य इसकी परिधि से बाहर थे।  गंगा घाटी तथा मध्यदेश में अपनी स्थिति को मजबूत करने के बाद समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ का विजय अभियान आरम्भ किया । प्रशस्ति की उन्नीसवीं तथा बीसवीं पंक्तियों में दक्षिणापथ के बारह राज्यों तथा उनके राजाओं के नाम मिलते हैं। इन राज्यों को पहले तो समुद्रगुप्त ने जीता किन्तु फिर कृपा करके उन्हें स्वतन्त्रे कर दिया। उसकी इस नीति को हम धर्म-विजयी राजा की नीति कह सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वह उनसे भेंट-उपहारादि प्राप्त करके ही संतुष्ट हो गया।

इन राज्यों के नाम इस प्रकार मिलते हैं-

(1) कोसल का राजा महेन्द्र

(2) महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज

(3) कौराल का राजा मण्टराज,

(4) पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरि, 

(5) कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त,

(6) एरण्डपल्ल का राजा दमन,

(7) काञ्ची का राजा विष्णुगोप,

(8) अवमुक्त का राजा नीलराज,

(9) वेङ्गी का राजा हस्तिवर्मा, 

(10) पालक्क का राजा उग्रसेन,

(11) देवराष्ट्र का राजा कुबेर,

(12) कुस्थलपुर का राजा धनञ्जय ।



1. कोसल का महेन्द्र – समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम कोसल के राजा महेन्द्र पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। यहाँ कोसल से अभिप्राय दक्षिण कोसल से है। दक्षिण कोसल में वर्तमान विलासपुर (म. प्र ), रायपुर और सम्भलपुर (उड़ीसा ) जिले सम्मिलित है। 



2. महाकान्तार का व्याघ्रराज — यह कोसल के दक्षिण का वन प्रदेश जान पड़ता है। यह व्याघ्रराज पूर्वी गोंडवाना का राजा था। जिसकी राजधानी सम्भलपुर थी। 

3. कोराल का मण्टराज — प्रयाग प्रशस्ति में यह स्पष्ट रूप से नहीं पढ़ा जा सका है। रायचौधरी ने इसकी पहचान दक्षिण भारत के कोराड़ नामक ग्राम से किया है ।



4. पिष्टपुर का महेन्द्रगिरि – पिष्टपुर, आन्ध्र के गोदावरी जिले का पिठारपुरम् है।

5. गिरि को कोट्टूर का स्वामीदत्त – कोट्टूर संभवतः उड़ीसा के गंजाम जिले में स्थित ‘कोटूर’ नामक स्थान था।



6. एरण्डपल्ल का दमन – एरण्डपल्ल की पहचान आन्ध्र के विशाखापट्टनम् जिले में स्थित इसी नाम के स्थान से की जाती है।

7. काँची का विष्णुगोप— यह राज्य कृष्णा नदी के मुहाने से पालेर अथवा कावेरी नदी तक विस्तृत था। काँची आधुनिक कॉंजीवरम् है जो चेन्नई के समीप स्थित है। विष्णुगोप पल्लव वंशी राजा था और काँची उसकी राजधानी थी।

8. अवमुक्त का नीलराज – यह राज्य काँची और वेंगी के बीच स्थित था। डॉ. रायचौधरी और डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी नीलराज को गोदावरी जिले में स्थित नीलपल्ली से जोड़ते हैं। 

9. वेंगी का हस्तिवर्मन – वेंगी की पहचान कृष्णा तथा गोदावरी के बीच एल्लोर के समीप स्थित वेंगी अथवा पेडुवेगी से की गयी है जिसका राजा हस्तिवर्मन था।

10. पालक्क का उग्रसेन– पालक्क नेल्लोर (तमिलनाडु) जिले का पालक्कड़ नामक है। 

11. देवराष्ट्र का कुबेर – देवराष्ट्र की पहचान इतिहासकार डूबील ने आधुनिक आन्ध्र प्रदेश के विजगापट्टम (विशाखापट्टनम्) जिले में स्थित एलमंचिली नामक परगना के साथ की है।

12. कुस्थलपुर का धनंजय —कुस्थलपुर की पहचान बार्नेट ने उत्तरी आर्काट में पोलूर के समीप स्थित कुट्टलपुर से की है।



(3) आर्यावर्त्त का द्वितीय युद्ध – 

दक्षिणापथ के अभियान से निवृत्त होने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में पुनः एक युद्ध किया जिसे ‘आर्यावर्त्त का द्वितीय युद्ध’ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम युद्ध में उसने उत्तर भारत के राजाओं को केवल परास्त ही किया था, उनका उन्मूलन नहीं । राजधानी में उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उत्तर के शासकों ने पुनः स्वतन्त्र होने की चेष्टा की। अतः दक्षिण की विजय से वापस लौटने के बाद समुद्रगुप्त ने उन्हें पूर्णतया उखाड़ फेंका। इस नीति को प्रशस्ति में ‘प्रसभोद्धरण‘ कहा गया है। यह दक्षिण में अपनाई गयी ‘ग्रहणमोक्षानुग्रह’ की नीति के प्रतिकूल थी। समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के राजाओं का विनाश कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।

प्रयाग प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में आर्यावर्त के नौ राजाओं का उल्लेख हुआ है। उल्लेखनीय है कि यहाँ उनके राज्यों के नाम नहीं दिये गये हैं। ये इस प्रकार हैं :

(1) रुद्रदेव, (2) मत्तिल, (3) नागदत्त, (4) चन्द्रवर्मा, (5) गणपतिनाग, (6) नागसेन (7) अच्युत (8) नन्दि (9) बलवर्मा 



(4) आटविक राज्यों की विजय– 

प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में ही आटविक राज्यों की भी चर्चा हुई है। इनके विषय में यह बताया गया है कि समुद्रगुप्त ने ‘सभी आटविक राज्यों को अपना सेवक बना लिया’ (परिचारकीकृत सर्वाटविकराज्यस्य)। फ्लीट के मतानुसार उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले से लेकर मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले तक के वन-प्रदेश में ये सभी राज्य फैले हुये थे। ऐसा लगता है कि जब समुद्रगुप्त दक्षिणी अभियान पर जा रहा था, इन राज्यों ने उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया। अतः उसने उन्हें जीतकर पूर्णतया अपने नियन्त्रण में कर लिया।

 5 ) सीमान्त प्रदेश


समुद्रगुप्त ने आन्तरिक क्षेत्र पर विजय प्राप्त करने के पश्चात सीमान्त प्रदेश की विभिन्न जातियों पर ध्यान दिया। प्रयाग प्रशस्ति में पूर्वी और पश्चिमी सीमान्त प्रदेशों का अलग-अलग उल्लेख किया गया है। यह प्रदेश राजतन्त्रात्मक थे।

क’ ) पूर्वी सीमान्त प्रदेश – 

1. समतट पूर्वी बंगाल का समुद्रतटीय प्रदेश

2. डवाक- सम्भवतः ढाका एवं चटगाँव जिले

3. कामरूप- वर्तमान आसाम

4. नेपाल

5. कृर्तपुर- कुमाँऊ, गढ़वाल एवं रूहेलखण्ड का कुछ भाग

‘ख’ ) पश्चिमी सीमान्त प्रदेश– प्रयाग प्रशस्ति में पश्चिमी सीमा के नौ जातियों के राज्यों का उल्लेख किया गया है। यह सभी गणतन्त्रात्मक राज्य थे। 

1. मालव- यह गुप्तों के समय मन्दसौर पर राज्य करते थे तथा पंजाब में ‘मालवानां जय’ तथा ‘मालवगणस्य जयः’ लिखा मिलता है।

2. यौधेय – यह हरियाणा में रहते थे और इनकी मुद्राओं में ‘बहुधान्यक यौधेयानाम अंकित मिला है। 

3. अर्जुनायन- यह अलवर और भरतपुर में रहते थे, जहाँ इनकी ‘अर्जुनायनानां जयः’ अंकित मुद्राएं प्राप्त हुयी हैं।

4. मद्रक- यह यौधेयों के उत्तर में थे तथा इनकी राजधानी शाकल (स्यालकोट ) थी। 

5. आभीर- यह मध्यप्रदेश के पार्वती और बेतवा नदी के बीच में आहीरवाड़ा में रहते थे।

6. प्रार्जुन- इसकी राजधानी मध्यप्रदेश में नरसिंहपुर या नरसिंहगढ़ थी ।

7. सनकानीक इनका राज्य भिलसा के पास था । 

8. काक- यह सनकानीक के पड़ोस में थे ।

9. खरपरिक- यह मध्यप्रदेश के दमोह में बसे थे।

साम्राज्य विस्तार – 

समुद्रगुप्त ने अपनी विजयों के द्वारा उसने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। प्रयाग प्रशस्ति में उसे ‘धरणि-बन्ध’ कहा गया है, जिसका अर्थ भारत का एकराट् सम्राट बनने से था। सिंहासन पर बैठते ही उसने दिग्विजय की योजना बनाई। उसके साम्राज्य में कश्मीर, पश्चिमी पंजाब पश्चिमी राजस्थान, गुजरात को छोड़कर समस्त भारत शामिल था।

निष्कर्ष – 

समुद्रगुप्त एक शक्तिशाली शासक और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ था। उसने लगभग तीस वर्ष (350 – 375 ई० ) तक शासन किया।  भारत के विशाल क्षेत्र पर विजय प्राप्त करने के बावजूद उसने उत्तर भारत के राज्यों को ही अपने केन्द्रीय शासन के अधीन रखा। उसने दूरस्थ विजित क्षेत्रों को अपने सीधे नियन्त्रण में करने का प्रयास नहीं किया, जो उसकी दूरदर्शिता को प्रकट करता है। उसने उत्तरी भारत को मजबूत केन्द्रीय शासन से एकता प्रदान कर एक महान साम्राज्य की नींव रखी। उसकी सफलता उसके सैनिक अभियानों का परिणाम थी।

 


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