सोरोकिन का सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धान्त (Sorokin’s Theory of Cultural Dynamics)
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सोरोकिन का समाजिक परिवर्तन का सिद्धांत
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सोरोकिन का समाजिक परिवर्तन का चक्रीय सिद्धांत
सोरोकिन ने अपनी पुस्तक ‘Social and Cultural Dynamics’ में सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उन्होंने मार्क्स, पैरेटो एवं वेबलिन के परिवर्तन सम्बन्धी सिद्धान्तों की आलोचना की। उनका मत है कि सामाजिक परिवर्तन उतार-चढ़ाव के रूप में घड़ी के पेण्डुलम की भाँति एक स्थिति से दूसरी स्थिति के बीच होता रहता है। उन्होंने प्रमुख रूप से दो संस्कृतियों-भावात्मक एवं चेतनात्मक—का उल्लेख किया। प्रत्येक समाज संस्कृति की इन दो धुरियों के बीच घूमता रहता है अर्थात् चेतनात्मक से भावात्मक की ओर तथा भावात्मक से चेतनात्मक की ओर आता-जाता है। एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाने के दौरान मध्य में एक स्थिति ऐसी भी होती है जिसमें चेतनात्मक एवं भावात्मक रहता संस्कृति का मिश्रण होता है। इसे सोरोकिन आदर्शात्मक संस्कृति कहते हैं। विभिन्न संस्कृतियों के दौर से गुजरने पर समाज में भी परिवर्तन आता है। इन तीनों प्रकार की संस्कृतियों की विशेषताओं का हम यहाँ संक्षेप में उल्लेख करेंगे
(i) चेतनात्मक संस्कृति (Sensate culture)-
चेतनात्मक संस्कृति को हम भौतिक संस्कृति भी कहते हैं। इस संस्कृति का सम्बन्ध मानव चेतना अथवा इन्द्रियों से होता है अर्थात् इसका ज्ञान हम देखकर, सूंघकर एवं छूकर कर सकते हैं। ऐसी संस्कृति में ऐन्द्रिक आवश्यकताओं व इच्छाओं की पूर्ति पर अधिक जोर दिया जाता है। इस संस्कृति में वैज्ञानिक आविष्कारों, प्रौद्योगिकी, भौतिक वस्तुओं एवं विलास की वस्तुओं का अधिक महत्व होता है। इसमें धर्म, नैतिकता, प्रथा, परम्परा एवं ईश्वर, आदि को अधिक महत्व नहीं दिया जाता है। व्यक्ति एवं सामूहिक पक्ष भी चेतनात्मक संस्कृति के रंग में रंगे होते हैं। पश्चिमी समाज चेतनात्मक संस्कृति का उदाहरण है।
(ii) भावात्मक संस्कृति (Ideational culture)-
यह चेतनात्मक संस्कृति के बिल्कुल विपरीत होती है। इसका सम्बन्ध भावना, ईश्वर, धर्म, आत्मा व नैतिकता से होता है। यह संस्कृति आध्यात्मवादी संस्कृति कही जा सकती है। इसमें इन्द्रिय सुख के स्थान पर आध्यात्मिक उन्नति, मोक्ष एवं ईश्वर प्राप्ति को अधिक महत्व दिया जाता है। सभी वस्तुओं को ईश्वर कृपा का फलं माना जाता है। विचार, आदर्श, कला, साहित्य, दर्शन एवं कानून सभी में धर्म एवं ईश्वर की प्रमुखता पायी जाती है, प्रथा और परम्परा पर अधिक बल दिया जाता है। इस संस्कृति में प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान पिछड़ जाता है।
(iii) आदर्शात्मक संस्कृति ( Ideal culture ) –
यह संस्कृति चेतनात्मक एवं भावात्मक दोनों का मिश्रण होती है, अतः इसमें दोनों की विशेषताएँ पायी जाती हैं। इसमें धर्म एवं विज्ञान, भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख दोनों का सन्तुलित रूप पाया जाता है। सोरोकिन इस प्रकार की संस्कृति को ही उत्तम मानते हैं। इसलिए इसे वे आदर्शात्मक संस्कृति कहते हैं।
सोरोकिन का मत है कि विश्व की सभी संस्कृतियाँ चेतनात्मक से भावात्मक के झूले में झूलती रहती हैं। प्रत्येक संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँचकर पुनः दूसरे प्रकार की संस्कृति की ओर लौट जाती है। जैसा कि उपरोक्त चित्र से प्रकट होता है कि चेतनात्मक एवं भावात्मक संस्कृतियाँ परिवर्तन की केवल सीमाएँ हैं, समाज में अधिकांश समय तो आदर्शवादी संस्कृति ही प्रचलित रहती है। संस्कृति में यह परिवर्तन क्यों होता के आन्तरिक कारण माने हैं क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम इसका कारण सोरोकिन ने प्राकृतिक नियम एवं संस्कृति है, अतः संस्कृति भी इसी नियम के कारण परिवर्तित होती है।
इसके अतिरिक्त, संस्कृति की आन्तरिक परिस्थितियाँ भी उसमें परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं। सोरोकिन ने कहा है कि बीसवीं सदी की पश्चिमी सभ्यता चेतनात्मक संस्कृति की चरम सीमा पर पहुँच गयी है, अब वह पुनः भावात्मक संस्कृति की ओर लौट जायेगी। चूँकि संस्कृति का समाज से घनिष्ठ सम्बन्ध है, अतः जब संस्कृति में परिवर्तन होता है तो समाज में भी परिवर्तन आता है।
समालोचना-
सोरोकिन ने अपने सिद्धान्त को वैज्ञानिक बनाने का प्रयत्न किया है, फिर भी उसमें कई कमियाँ हैं, जैसे—
(i) संस्कृति को एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक पहुँचने में इतना लम्बा समय लग जाता है कि इस आधार पर सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति को प्रकट करना मुश्किल है।
(ii) ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर इस बात को सिद्ध करना सम्भव नहीं है। कि सभी समाज एक प्रकार की संस्कृति से दूसरे प्रकार की संस्कृति के बीच परिवर्तन के दौर से गुजरते हैं।
(iii) सोरोकिन सांस्कृतिक परिवर्तन के कारकों को भी स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं। यह कह देना कि परिवर्तन प्राकृतिक कारणों से होते हैं एक वैज्ञानिक के लिए पर्याप्त नहीं है।
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