Introduction –
पार्थियनों के अवसान के बाद ईरान में ससैनियन साम्राज्य एवं सभ्यता की स्थापना हुई। ससैनियन संज्ञा इस राजवंश के आदि संस्थापक ससान के नाम के आधार पर दी जाती है। यह जाति फार्स (पर्सिया-फारस) प्रान्त में हजारों वर्ष पहले से रह रही थी। ससैनियन हखामनीषियों से अपने को सम्बन्धित करती है।
ससैनियन सभ्यता की विशेषताएं
ससैनियन सभ्यता की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार है –
1) राजनीतिक संगठन
ससैनियनों का राजनीतिक संगठन पिरामिडनुमा था। अर्थात इसमें सम्राट सत्ता के शीर्ष पर था। यही राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी तथा विधिनिर्माता था। यह राजाधिराज (किंग ऑव किंग्स), आर्य-शासक आदि उपाधियां धारण करता था। इसका निर्णय अन्तिम तथा अविवाद्य था। जरूरत पड़ने पर यह सेना का नेतृत्व करता था। राजपद सामान्यतः वंशानुगत था और पिता के बाद ज्येष्ठ पुत्र प्राप्त कर लेता था। किन्तु कभी-कभी छोटे पुत्र को भी राजा की इच्छा से राजपद मिल जाता था। शासक की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद की व्यवस्था थी। राज्य की आमदनी का प्रमुख साधन भूमिकर था। ये कर कृषकों और श्रमिकों से लिए जाते थे।
2) सामाजिक संगठन
ससैनियनकालीन ईरानी समाज कठोर वर्ग की भित्ति पर आधारित था। घर्शमान के अनुसार पिरामिडनुमा इस समाज में वर्गभेद इतना दृढ़ था कि एक वर्ग का दूसरे में सरलता से प्रवेश पाना कठिन था। मोटेतौर पर इसमें चार वर्ग थे – (i) शासक तथा राजकुल के सदस्य, (ii) सामन्त तथा पुरोहित, (iii) मंत्रिगण, अधिकारी तथा कर्मचारी एवं (iv) जन साधारण। प्रथम तीन की गणना उच्च वर्ग में की जाती थी। समाज में इनका स्थान श्रेष्ठ था।
समाज में चौथे स्थान पर जन साधारण वर्ग के सदस्य थे। इस वर्ग में किसान, व्यापारी तथा श्रमिक आते थे। ये आमतौर पर ग्रामीण आबादी का प्रतिनिधित्व करते थे। समाज में इनकी स्थिति अच्छी नही थी। एक प्रकार से इनका जीवन पूर्णतया सामन्तों तथा राजकर्मचारियों की कृपा पर निर्भर था।
स्त्रियों की दशा-
नारियों की दशा सामान्यतः अच्छी मानी जाती है। वे सामाजिक कार्यों में खुल कर भाग लेती थीं। राजाओं तथा सामन्तों में बहुपत्नीक प्रथा थी। पत्नी के अतिरिक्त रखैल स्त्रियाँ भी होती थीं। पर्दा प्रथा में शिथिलता थी। राजा की पत्नी को साम्राज्ञी की उपाधि से विभूषित किया जाता था। भित्तिचित्रों में स्त्रियों को पर्याप्त साज-सज्जा से अलंकृत किया गया है।
3) आर्थिक संगठन
कृषि –
ससैनियन काल में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित थी। ससैनियन शासकों ने इसकी उन्नति में भरपूर सहयोग दिया। सिंचाई के लिए नहरें निकलवायी गयीं तथा खेती के लिए भूमि, बीज तथा पशु उपलब्ध कराये गये। जमीन ज्यादातर सामन्तों के पास थी। खेती का काम किसान करते थे, किन्तु इन्हें इसका ज्यादा लाभ नहीं मिल पाता था। क्योंकि भूस्वामी उपज का बड़ा हिस्सा ले लेता था। उत्पादन भूस्वामी की इच्छानुसार किया जाता था, किसान की इच्छा के अनुसार नहीं। भूमिकर ज्यादातर अनाज (जिन्स) के रूप में लिया जाता था। मुद्रा के जरिए भूमिकर चुकता करने की प्रथा कम थी। मुख्यतः अनाज, तिलहन, गन्ना तथा फल पैदा किये जाते थे। इस काल में खेती में कुछ नवीनता आयी। रेशम की मांग बढ़ने से शहतूत की खेती की जाने लगी तथा रेशम के कीड़े पाले जाने लगे। कृषि के साथ-साथ ससैनियन पशुपालन में भी आगे थे।
व्यवसाय-
ससैनियन काल में ईरान में व्यवसाय का भी विकास हुआ। रेशमी वस्त्रों के कारखानों खोले गये जिन्हें सरकार ने नियंत्रण में ले लिया। शीशे की वस्तुयें भी निर्मित की गयीं। ईरानी राज्यों में अपनी आवश्यकताओं के अनुसार राजकीय कारखानों में अनेक वस्तुओं के बनाने की व्यवस्था की।
ईरान का बाहरी देशों के साथ व्यापार होता था इनमें, मिस्र, सिकन्दरिया, रोम, यूनान, एशिया, माइनर, मेसोपोटामिया और भारतवर्ष तथा चीन विशेष उल्लेखनीय हैं।
चाँदी और ताँबे के सिक्कों का विस्तृत प्रचलन हुआ। हँडियों और चेकों द्वारा आदान-प्रदान का तथा बैंकों का उपयोग अधिकाधिक पैमाने पर होने लगा। सम्भवतः चेक शब्द की उत्पत्ति पहलवी भाषा से हुई।
4) साहित्य भाषा
पहलवी भाषा के विशेष उन्नति हुई। यह राष्ट्र भाषा हो गयी। इस भाषा का प्रचलन चौथी शताब्दी में हुआ था और 9वीं शताब्दी तक इसका प्रचार एवं प्रसार हुआ। इसकी विशेषता यह है कि इसमें लिखा कुछ जाता है और पढ़ा जाता है। उदाहरणार्थ रोटी को लहया लिखा जाता है और नान पढ़ा जाता है। मल्कान-मल्का को शाहंशाह को पढ़ा जाता है। जन्दावेस्ता की व्यवस्था भी इसी प्रकार की भाषा में की गयी थी। इस भाषा के ग्रन्थों में धार्मिक ग्रन्थ ही उपलब्ध होते हैं। इस भाषा में लगभग 82 ग्रंथ लिखे गये जिनमें अब कुछ ही प्राप्त हैं।
5) कला
ससैनियन काल में वास्तुकला अपने उत्कीर्ष की अवस्था में थी। इस समय निर्मित ईरानी सम्राटों के महल और मन्दिर इस बात के प्रतीक हैं। उनकी निर्माण कला का प्रभाव अरबों पर भी पड़ा। उस समय प्रायः सभी प्रकार के भवन चौकोर बनाये जाते थे जिनके बीच में मण्डप होता था। इन कमरों के ऊपर गुम्बद होते थे और इनमें कार्निसों और ताकों का बाहुल्य होता था। ससानी लोग दाढ़ी वाले आकृतियों को रुस्तम की ही आकृतियाँ समझते थे। परन्तु 19वीं शती में इसकी यही व्याख्या की गई। इनमें चित्रों की संख्या सात है। इनमें से एक में सम्राट् शापुर घोड़े पर सवार है और रोमन सम्राट् कैदी बना जमीन पर पड़ा हुआ है। सम्राट् के सिर पर मुकुट है। दाढ़ी में गाँठ लगी है। सम्राट् सलवार पहने हैं।’ यह चित्र 260 ई0 का बना है। विद्वानों का कथन है कि ससैनियन चित्र कला का प्रभाव मध्य एशिया के बौद्ध देवालय के भित्ति चित्रों में परिलक्षित होता है।
6) धार्मिक जीवन
ससैनियन काल में ईरान में पांच धार्मिक सम्प्रदाय विद्यमान थे- (i) मज्द सम्प्रदाय, (ii) अनाहिता सम्प्रदाय, (iii) मनीची सम्प्रदाय, (iv) मज्दक सम्प्रदाय तथा (V) ईसाई सम्प्रदाय। किन्तु इनमें प्रमुखता प्रथम चार की ही थी।
(i) मज्द सम्प्रदाय – मज्द सम्प्रदाय को जरथ्रुस्त्र धर्म भी कहते थे। इसे फारस में राजधर्म घोषित कर दिया गया। इसमें जेंद अवेस्ता को ज्ञान का सार स्वीकार किया गया।
ii) अनाहिता सम्प्रदाय – ससैनियन काल में इसे और अधिक महत्ता मिली। ससान, पपक तथा अर्देशिर ने अनाहिता-उपासना को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया। अनाहिता पूजा में पुरोहितों की आवश्यकता भी पड़ती थी। राज्य की ओर से अनाहिता के मंदिरों में इनकी नियुक्ति की गयी।
iii) मनीचधर्म- ससैनियन काल में बौद्ध, ईसाई और यूनानी धर्मों का प्रभाव पड़ा था। प्राचीन और नवीन मान्यताओं से प्रेरित होकर मानी नामक धर्म प्रवर्तक ने मनीच धर्म का प्रचार किया। मनीच धर्म ने ईसाई धर्म के कुछ सिद्धान्तों को अपना लिया। जरथुस्त्र मत के समान इसने भी यह कहा कि संसार शुभ और अशुभ दो शक्तियों पर आधारित है और जीवन प्रकाश तथा अन्धकार के मध्य का संक्रमण है।
iv) मज्दक का धर्म- हजरत मज्दक नामक व्यक्ति पारसी धर्म का पुरोहित था। इसका कथन था कि ईश्वर ने सबको एक समान उत्पन्न किया है। न कोई बड़ा है न कोई छोटा। अतः जीवन पर्यन्त उसकी यही स्थिति रहनी चाहिए। ईरान के सामाजिक जीवन पर उसका भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा। ससैनियन नरेश कोवद ने इस धर्म को प्रश्रय प्रदान किया।
7) निष्कर्ष
उपरोक्त वर्णन के आधार पर कह सकते है कि पार्थियनों के बाद ससैनियन ने ईरान में एक सुगंठित तथा विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया। इनका धर्म तथा इनकी संस्कृति पार्थियनों की तुलना में ईरानियों के अधिक निकट थी। इन्होंने एक केन्द्रीय शक्ति स्थापित की, एक सुगठित सेना का निर्माण किया तथा देश को सुव्यवस्थित शासनतंत्र प्रदान किया। इन्होंने इतनी अधिक शक्ति अर्जित की कि तत्कालीन सम्पूर्ण सभ्य जगत इनके तथा रोम के बीच ही बंट गया।
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