चोल वंश – परिचय
कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों से लेकर कुमारी अन्तरीप तक का विस्तृत भूभाग प्राचीन काल में तमिल प्रदेश का निर्माण करता था। इस प्रदेश में तीन प्रमुख राज्य थे-चोल, चेर तथा पाण्ड्य।
अति-प्राचीन काल में इन तीनों राज्यों का अस्तित्व रहा है। अशोक के तेरहवें शिलालेख में इन तीनों राज्यों का स्वतन्त्र रूप से उल्लेख किया गया है जो उसके साम्राज्य के सुदूर दक्षिण में स्थित थे। कालान्तर में चोलों ने अपने लिये एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया। उनके उत्कर्ष का केन्द्र तंजौर था और यही चोल साम्राज्य की राजधानी थी।
चोल प्रशासन की विशेषताएं
चोल साम्राज्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उसकी प्रशासन है। चोल सम्राटों ने एक विशिष्ट शासन व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें प्रबल केन्द्रीय नियन्त्रण के साथ ही साथ बहुत अधिक मात्रा में स्थानीय स्वायत्तता (Local autonomy) भी थी। चोल प्रशासन की जानकारी हमे लेखों और इस काल के साहित्य तथा विदेशी यात्रियों के विवरण से मिलती है।
चोल साम्राज्य के प्रशासन की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं –
केन्द्रीय शासन
चोल काल के शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक था। राजा प्रशासन का सर्व प्रमुख होता था। राजपद वंशानुगत था। सामान्यतः ज्येष्ठ पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी होता था लेकिन राजपद के लिए योग्यता पर भी विचार किया जाता था।
चोल काल में राजाओं और रानियों की मूर्तियों को मन्दिर में प्रतिष्ठित किये जाने से यह पता चलता है कि राजा को दैवी गुणों से सम्पन्न माना जाता था। सम्राट के आदेश अक्सर मौखिक होते थे जो उसके पदाधिकारियों द्वारा विभिन्न प्रान्तों में सावधानीपूर्वक लिखकर पहुँचा दिये जाते थे। चोल सम्राट निरंकुश नहीं होता था तथा धर्म तथा आचार के विरुद्ध कार्य नहीं करता था। वह कानून का निर्माता न होकर सामाजिक नियमो एवं व्यवस्था का प्रतिपालक होता था। सार्वजनिक हित के कार्यों, जैसे-मन्दिर निर्माण, कृषि योग्य भूमि तथा सिंचाई के साधनों की व्यवस्था, विद्यालयों तथा औषधालयों की स्थापना आदि में उसकी विशेष रुचि होती थी। राजपरिवार के अन्य सदस्य, दरबारी अधिकारी आदि सभी सम्राट के आदर्श का अनुकरण करते थे। धार्मिक मामलों में सम्राट राजगुरुओं की परामर्श से ही कार्य करता था।
अधिकारी-तंत्र (Bureaucracy)
चोल प्रशासन में एक सुविस्तृत अधिकारी-तन्त्र (Bureaucracy) था जिसमें विभिन्न दर्जे के पदाधिकारी होते थे। केन्द्रीय अधिकारियों की कई श्रेणियाँ होती थीं। सबसे ऊपर की श्रेणी को ‘पेरुन्दनम्’ तथा नीचे की श्रेणी को ‘शिरुदनम्’ कहा जाता था। लेखों में कुछ उच्चाधिकारियों को ‘उडनकूट्टम्’ कहा गया है जिसका अर्थ है- सदा राजा के पास रहने वाला अधिकारी। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार ये राजा के निजी सहायक थे जो राजा तथा नियमित कर्मचारी-तन्त्र के बीच सम्पर्क का कार्य करते थे। उनका कार्य सम्बन्धित विभागों के कर्मचारियों को राज्य की नीति बताना तथा राजा को प्रान्तों की आवश्यकताओं से अवगत कराना था। राज्य के प्रबन्ध में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। समाज में अधिकारियों का अलग वर्ग होता था। पदाधिकारियों को नकद वेतन के स्थान पर भूमिखण्ड (जीवित) दिये जाते थे।
प्रशासनिक इकाइयाँ
राज्य को राज्यम् अथवा राष्ट्रम् कहा जाता था। राज्य अनेक मण्डलों (प्रान्तों) में विभाजित था। मण्डलम का प्रमुख राजा का सम्बन्धी अथवा उस क्षेत्र का पराजित सामन्त होता था। मण्डलम् ‘वलनाडु’ तथा ‘नाडु’ में विभाजित होते थे जो आधुनिक कमिश्नरी तथा जिलों की तरह थे। नाडु के अन्तर्गत ‘कोट्टम’ या ‘आम समूह’ आते थे। कोट्टम अनेक कुर्रम (गाँव के समान) मिलकर निर्मित था। बड़े नगरों को अलग से कुर्रम माना जाता था, उन्हें तनियुर या ‘तनकुर्रम’ कहा जाता था। जिन सामन्तों को मण्डल का शासक नियुक्त किया जाता था, उनके नाम के साथ ‘चोल’ शब्द लगाया जाता था जैसे ‘चोलपाण्ड्य’ या ‘चोलगंग’।
सैन्य प्रशासन-
चोलों की सेना विशाल शक्तिशाली तथा पारगंत थी। सेना को मन्रुकई-महासेनह कहते थे। सेना अनेक भागो में विभाजित थी- 1. चुने हुए चनुर्धरी का भाग (विल्लिगल), 2. स्थल असिधारी पदाति (बडपेर कैक्कोलकर), 3. दक्षिण पाश्र्व के पदाति (वलग वेलैक्कार), 4. चुने हुए अश्वारोही (कुडिरैच्चैवगर), 5. गजदल सैनिक (आनैयाटुफल कुंजिरमल्लर)। सेना छावनियों में निवास करती थी। इन छावनियों को ‘कड्गम्’ अथवा ‘रमडड्वीडु’ कहा जाता था। सम्पूर्ण सेना में 1,50,000 सैनिक थे। इसमें गजारोहियों की संख्या 60,000 थी। सेना के प्रयोग हेतु घोडे अरब देशों से आयात किये जाते थे। सम्राट का अंगरक्षक दल ‘वेलइक्कार’ कहा जाता था। चोल अभिलेखो में 70 सैनिक समूहों (रेजीमेण्ट) का उल्लेख मिलता है। राजा, राजकुमार सेना का नेतृत्व करते थे। ब्राह्मण सेनापतियों को ‘ब्रह्माधिराज’ कहा जाता था। चोल सैनिक संगठन की सर्व प्रमुख विशेषता उनका शक्तिशाली जहाजी बेड़ा था। मालाबार और कोरोमण्डल तट पर नोल शासकों में बन्दरगाह चे। लंका तथा श्रीविजय राज्यों को उन्होंने विजित किया था।
राजस्व प्रशासन-
चोल प्रशासन में आय का मुख्य स्रोत भूमि कर था जो उपज का तिहाई भाग होता था। प्राकृतिक विपत्ति को स्थिति में करों में छूट दी जाती थी। कर लगाने तथा संग्रह का कार्य ग्राम सभा द्वारा किया जाता था। कर का नकद अथवा अनाज के रूप में भुगतान किया जा सकता था। अन्न का मान ‘कलम’ था और सोने की मुद्रा ‘कशु’ कहलाती थी। इसके अलावा कुछ अन्य कर भी थे; जैसे-करघे, कोल्हू पर कर, पशुओं, तालाबों, नदियों, नमक आदि पर कर, बाजारों पर कर, चंगी आदि। चोल साम्राज्य में गृह कर, परिवहन कर भी लगाये जाते थे।
भूमि कर का निर्धारण भूमि का सर्वेक्षण कर किया जाता था। भू-राजस्व तथा भू-अधिकारों का विस्तृत लेखा-जोखा रखा जाता था।
न्याय प्रशासन-
चोल प्रशासको की न्याय व्यवस्था उदार थी। स्थानीय संस्थाओं को न्याय अधिकार प्राप्त थे। राजा अन्तिम अपील सुनता था। संयोगवश हत्या हो जाने पर सोलह गायों का जुर्माना किया जाता था। मृतक को आत्मा की शान्ति के लिए मन्दिर में दीपक जलाया जाता था। अपराध के अनुसार दण्ड निर्धारित किया जाता था। व्यभिचार, चोरी, धोखेबाजी को गम्भीर अपराध की श्रेणी में रखा जाता था। जूरी के समान प्रणाली, साक्ष्यों को प्राप्त करना तथा अपराधी का परीक्षण भी किया जाता था।
सार्वजनिक निर्माण कार्य-
चोल सम्राटों ने विशाल पैमाने पर निर्माण कार्य किये थे। राजेन्द्र प्रथम ने अपनी राजधानी के समीप एक बड़ी झील का निर्माण कराया था और उसे कोलेरुन और बेल्लार नदियों के पानी से भरा था। इसका बाँध 20 किलोमीटर लम्बा था। यहाँ से अनेक नहरे निकाली गयी थी। चोल राजाओं ने पुलों, कुओं और सड़कों का निर्माण कराया था। उन्होंने विशाल मन्दिरों का निर्माण कराया जो नगर तथा ग्रामीण जीवन के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। मन्दिर शिक्षा और आध्यात्म के प्रमुख केन्द्र थे।
स्थानीय स्वायत्त शासन
चोल प्रशासन की सर्व-प्रमुख विशेषता इसकी स्वायत्तशासी संस्थाएँ थी। वे संस्थाएँ चोलों के पहले से अस्तित्व में थीं लेकिन राजेन्द्र चोल ने इन्हें सुव्यवस्थित रूप से संगठित किया। मण्डल, नाडु और कुर्रम की अपनी सभाएँ होती थीं। सभी महत्वपूर्ण प्रश्नों पर वे अपना निर्णय देती थीं। नगरों में उद्योगों तथा व्यापारियों की श्रेणियाँ होती थीं जो अपने नियम बनाती थीं और प्रशासन उन्हें मान्यता प्रदान करता था। सभा और श्रेणियों के सदस्यों का निर्वाचन नियमानुसार किया जाता था। निर्वाचन के लिए आयु, योग्यता आदि कुछ नियम थे। निर्वाचन एक वर्ष के लिए किया जाता था और इसका संयोजन पुरोहित करता था। वह न केवल मतदान कराता था बल्कि वह परिणाम की घोषणा भी करता था। भ्रष्ट व्यक्तियां अथवा अपराधियों को निर्वाचन के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता था।
स्थानीय स्वायत्त शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम सभा थी ग्राम सभा को उरार अथवा ऊर अथवा सभा’ के नाम से जाना जाता था। कोट्टम अथवा गाँव दो प्रकार के होते थे। साधारण ग्राम जिनमें सभी जातियों के सदस्य निवास करते थे, ‘ऊर’ कहलाते थे। ऐस ग्रामों की सभा को ऊर अथवा उरार के नाम से जाना जाता था। दूसरी श्रेणी के ग्राम जो विद्वानों को दान में दिये जाते थे, अग्रहार अथवा ब्राह्मणदेय अथवा ‘चतुर्वेदिमंगलम्’ के नाम से जाने जाते थे अथवा केवल ‘मंगलम्’ कहलाते थे। ऐसे ग्रामों की संस्था ‘सभा’ कहलाती थी। जिन ग्रामों में ब्राह्मण और दूसरी जातियाँ रहती थी, उनमें ऊर और सभा दोनों साथ-साथ काम करती थीं।
निष्कर्ष
इस प्रकार चोल शासन-व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन युग की यह एक उत्कृष्ट शासन-प्रणाली थी जिसमें केन्द्रीय नियन्त्रण तथा स्थानीय स्वायत्तता साथ-साथ वर्तमान रही। चोलों की शासन-व्यवस्था का मूल्यांकन करते हुये इतिहासकार नीलकण्ठ शास्त्री लिखते हैं-
“Between an able bureaucracy and active local assemblies which in various ways fostered a live sense of citizenship, there was attained a high standard of administrative efficiency and purity, perhaps the highest ever attained by a Hindu State.”