समाज -अर्थ, परिभाषा और विशेषताएं

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समाज -अर्थ, परिभाषा और विशेषताएं | samaj ka arth , paribhasha aur vishestaye

अर्थ

समाजशास्त्र समाज का विज्ञान’ है। इसीलिए ‘समाज’ समाजशास्त्र की एक प्रमुख अवधारणा है। हम सब लोग समाज में रहते हैं। समाज के बिना हमारा जीवन सम्भव नहीं है। इसीलिए यह भी कहा जाता है कि “जहाँ जीवन है, वहाँ समाज भी है।” वास्तव में, व्यक्ति एक-दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इससे ही समूहों एवं समाज का निर्माण होता है।

• समाजशास्त्र में व्यक्तियों के समूह या संकलन (एकत्रीकरण) मात्र को ही समाज नहीं कहा जाता है। व्यक्तियों में पाए जाने वाले पारस्परिक सम्बन्धों की व्यवस्था को ही समाज कहा जाता है। 

परिभाषाएं

मैकाइवर एवं पेज के अनुसार – समाज कार्यप्रणालियो एवं रीतियो की, अधिकार सत्ता एवं पारस्परिक सहायता की, अनेक समूहों एवं श्रेणियों की तथा मानव-व्यवहार के नियन्त्रणों एवं स्वतन्त्रताओं की एक व्यवस्था है।

गिंडिग्स के अनुसार – “समाज स्वयं एक संघ है, एक संगठन है, औपचारिक सम्बन्धों का योग है जिसमें सहयोगी व्यक्ति परस्पर-सम्बद्ध हैं । 

गिन्सबर्ग के अनुसार – “समाज ऐसे व्यक्तियों का संग्रह है जो कुछ सम्बन्धों अथवा व्यवहार की विधियों द्वारा आपस मे बंधे हुए हैं, और उन व्यक्तियों से भिन्न हैं जो इस प्रकार के सम्बन्धों द्वारा आपस में बंधे हुए नही हैं अथवा जिनके व्यवहार उनसे भिन्न हैं।

क्यूबर के अनुसार – “समाज ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो काफी समय तक इकटठे रहने के कारण संगठित हो गये हैं तथा जो स्वयं को अन्य मानवीय इकाइयों से भिन्न इकाई समझते हैं ।”

लापियर के अनुसार – समाज मनुष्यों के समूह का नाम नहीं, बल्कि यह मनुष्यों के अन्त सम्बन्धों/ पारस्परिक संबंध की जटिल व्यवस्था है। 


समाज की विशेषताएं

1. पारस्परिक जागरूकता (mutual awareness)

पारस्परिक जागरूकता के अभाव में न तो सामाजिक संबंध बन सकते हैं और न ही समाज।

2. समाज अमूर्त है (Society is abstract)-

समाज व्यक्तियों का समूह न होकर उनमें पनपने वाले सामाजिक संबंधों का जाल है। सामाजिक संबंध अमूर्त हैं। इन्हें न तो देखा जा सकता है और न ही छुआ जा सकता है। इन्हें तो केवल अनुभव किया जा सकता है। अतः सामाजिक संबंधों के आधार पर निर्मित समाज ही अमूर्त है।

3. समाज में समानता एवं असमानता (Likeness and differences in society)- 

समाज में समानता एवं असमानता दोनों ही देखने को मिलती हैं। ये दोनों ही समाज के लिए आवश्यक तत्व है। दोनों का अपना-अपना महत्व है और ये एक दूसरे के पूरक हैं।


4. समाज में सहयोग एवं संघर्ष (Cooperation and conflict in society) 

समाज में सहयोग एवं संघर्ष दोनों ही देखने को मिलता हैं। प्रत्येक समाज में सहयोग और संघर्ष सार्वभौमिक प्रक्रियाओं के रूप में पाए जाते हैं। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार समाज सहयोग का दूसरा नाम है किंतु सहयोग की स्थिति सामाजिक संघर्ष की समाप्ति के बाद आती है।

5. समाज निरन्तर परिवर्तनशील है- 

ब्रिटिश समाजशास्त्री स्पेंसर (H. Spencer) के अनुसार परिवर्तन समाज का नियम है। कभी यह परिवर्तन तेजी से होता है, तो कभी क्रमिक गति से, लेकिन परिवर्तन सदैव होता रहता है। समाज में परिवर्तन की शक्ति निहित है। 

6. पारस्परिक निर्भरता- 

मनुष्य अपनी आवश्यकताएँ अकेले पूरी नहीं कर सकता है। उसे दूसरे व्यक्तियों या समूहों पर निर्भर रहना पड़ता है। पारस्परिक निर्भरता के कारण ही मानव समाज में भाई-चारे का भाव पैदा होता है, समानता एवं सौहार्द की भावना आगे बढ़‌ती है। इसीलिए कहा जाता है कि समाज के एक क्षेत्र में अगर परिवर्तन होता है, तो समयानुसार समाज के अन्य क्षेत्रों में भी परिवर्तन होता है क्योंकि समाज के तमाम तत्त्व एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं।

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