विद्यालय प्रबन्धन का अर्थ एवं कार्य

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विद्यालय प्रबन्धन का अर्थ एवं कार्य

विद्यालय प्रबन्धन की अवधारणा (Concept of School Management)

विद्यालय एक शैक्षिक संस्था है एवं प्रबन्धन वह साधन है जिसके द्वारा इस संस्था का सुचारू रूप से संचालन किया जाता है। इस प्रकार विद्यालय प्रबंधन का अर्थ है विद्यालय को वांछित शैक्षिक नीतियों के अनुसार चलाना।

विद्यालय प्रबंधन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव और भौतिक संसाधनों का उपयोग करके विद्यालय की गतिविधियों की योजना बनाने, व्यवस्थित करने, निर्देशित करने और नियंत्रित करते है ताकि स्कूल के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से शिक्षण, विस्तार कार्य और अनुसंधान के कार्यों को प्रभावी ढंग से और कुशलतापूर्वक पूरा किया जा सके।

अतः विद्यालय प्रबंधन के अंतर्गत  विद्यालय के सभी प्रबंधकीय गतिविधियों से लेकर दिन-प्रतिदिन के कामकाज तक शामिल है।

यह स्कूल के सभी पहलुओं (नीतियों, सामग्री और मानव संसाधनों, कार्यक्रमों, गतिविधियों, उपकरणों आदि) को ध्यान में रखता है और उन्हें एक उपयोगी समग्र में एकीकृत करता है।

परिभाषाएं –


  • हैरोल्ड कीजन के अनुसार – विद्यालय प्रबन्धन मानवीय और भौतिक साधनों से उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समन्वय करना है।
  • लूथर गुलिक के अनुसार, विद्यालय प्रबंधन सत्ता का औपचारिक ढांचा है जिसके अंतर्गत निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभागीय कार्यों को क्रमबद्ध रूप से विभाजन करना, परिभाषित करना तथा समन्वित करना सम्मिलित होता है।
  • जेम्स लुंडे के अनुसार, ‘विद्यालय प्रबंधन मुख्य रूप से किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए प्रयोगों को नियंत्रित, समन्वित, अभिप्रेरित एवं नियंत्रित करने की कला है।”

विद्यालय प्रबंधन का कार्य (Function of School Management)

विद्यालय प्रबंधन प्रक्रिया गतिशील प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार के कार्यों को किया जाता है। इन कार्यों को मुख्यतः छह भागों में विभाजित किया जा सकता है- नियोजन, संगठन, निर्देशन, नियंत्रण, समन्वय एवं मूल्यांकन। विस्तार रूप से सबका वर्णन इस प्रकार है – 


1. नियोजन (Planning): 

  • नियोजन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विधिवत कार्य करने की प्रक्रिया का निर्माण करता है। नियोजन कार्य करने से पूर्व ही कार्य करने के विधि पर विचार करता है तथा कार्य के दौरान आनेवाली कठिनाइयों का अनुमान लगाता है। नियोजन प्रक्रिया के मुख्य तीन अंग हैं
  • (क) उद्देश्यों का निर्धारण
  • (ख) उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपयुक्त वातावरण
  • (ग) कर्मचारियों में कार्य विभाजन
  • विद्यालय में नियोजन के अंतर्गत उद्देश्यों को निर्धारित करना, संसाधनों का अनुमान लगाना, उद्देश्य प्राप्ति के लिए कार्यक्रमों का चयन करना, पाठ्यक्रम का निर्धारण करना, कार्यविधि का निर्धारण करना, कार्यक्रमों को पूर्ण करने के लिए शिक्षकों की योग्यता एवं रुचि के अनुसार उनमें कार्य का विभाजन करना तथा विद्यालय के भावी विकास की तैयारी करना आदि है।

2. संगठन (Organization): 

संगठन का अर्थ है उन सभी वस्तुओं की व्यवस्था करना जो कि संस्था के संचालन के लिए आवश्यक हैं, जैसे भौतिक संसाधन तथा मानवी संसाधन (कर्मचारी) आदि। संगठन द्वारा विद्यालय में होने वाले कार्यों का वितरण किया जाता है एवं मानवी संसाधनों के परस्पर संबंध निर्धारित किए जाते हैं।

3. निर्देशन (Direction): 

  • निर्देशन से तात्पर्य शिक्षकों तथा शिक्षकेतर कर्मचारियों के प्रयत्नों को सही दिशा प्रदान करना है। निर्देशन के मुख्य तीन कार्य हैं-
  • (क) संप्रेषण (Communication)
  • (ख) नेतृत्व (Leadership)
  • (ग) प्रेरणा (Motivation)
  • प्रत्येक शिक्षक को उनके कार्य के संबंध में पूर्ण सूचना देना प्रबंधक का दायित्व है। कार्य किस प्रकार किया जाएगा, कितने समय में पूरा किया जाएगा, कार्य में आनेवाली समस्याओं को किस प्रकार सुलझाए आदि प्रश्नों के उत्तर भी प्रबंधक देता है। प्रबंधक नेता के रूप में अपने सहकर्मियों के कार्य की प्रशंसा करके उनको कार्य अधिक लगन, उत्साह एवं कुशलता से करने के लिए प्रेरित करता है। प्रबंधक नेता के रूप में अपने सहकर्मियों के समक्ष अपने कार्यों द्वारा आदर्श प्रस्तुत करता है तथा कार्य संबंधी समस्याओं का हल करने में सहायता करता है। निर्देशन एक प्रेरणात्मक शक्ति है जो विद्यालय के कार्यों को गति प्रदान करती है। 

4. नियंत्रण (Control): 

  • नियंत्रण का अर्थ है विद्यालय की सभी गतिविधियों का ध्यान रखना जिससे संस्था में होनेवाले समस्त कार्य निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में हों। प्रबंधक का कर्तव्य है कि वह सुनिश्चित करे कि विद्यालय में सभी कार्य निर्धारित योजना के अनुरूप हो रहे हैं। यदि नहीं हो रहे हैं तो कहां और क्यों नहीं हो रहे हैं इसका पता लगाना तथा सुधारात्मक कार्यवाही प्रभावी नियंत्रण के लिए आवश्यक है। नियंत्रण रखने के लिए विद्यालय में नियम, नीतियां तथा विधियां निर्धारित की जाती हैं। साथ ही पर्यावरण तथा मूल्यांकन द्वारा नियंत्रण रखा जाता है। अतः नियंत्रण कार्य के प्रारंभ से लेकर पूरा होने तक रखा जाना चाहिए। नियंत्रण प्रक्रिया के तीन मुख्य तत्व हैं, जिनके आधार पर नियंत्रण रखा जाना चाहिए-
  • (अ) कार्य का मापदंड निर्धारित करना।
  • (ब) निर्धारित मापदंड के आधार पर वर्तमान कार्य की तुलना करना।
  • (स) निर्धारित मापदंड न पूरे करने वाले कार्य में सुधार लाना।

(5) समन्वय (Cordination): 

समन्वय से तात्पर्य है संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षकों एवं अन्य कर्मचारियों द्वारा किए गए प्रयासों में क्रमबद्धता होना। विद्यालय में छात्रों के विकास के लिए विभिन्न क्रियाएं की जाती हैं। इन क्रियाओं को किस समय 

किसके द्वारा तथा किस प्रकार करवाया जाएगा इसमें समन्वय होना आवश्यक है। विभिन्न कार्यक्रमों में समन्वय होगा तभी कार्यक्रम व्यवस्थित ढंग से पूर्ण किए जा सकेंगे। कार्यक्रमों के समन्वित संचालन के साथ-साथ विद्यालय के उद्देश्यों, कार्यक्रमों संसाधनों के मध्य समन्वय होना आवश्यक है।




6) मूल्यांकन (Evaluation/Assessment):

  • मूल्यांकन प्रबंधन प्रक्रिया का अति महत्वपूर्ण कार्य है। मूल्यांकन द्वारा ही संस्था की सफलता असफलता का अनुमान लगाया जा सकता है। संस्था के मूल्यांकन से तात्पर्य है उद्देश्यों के संदर्भ में विद्यालय की उपलब्धियों का आकलन करना तथा कमियों का पता लगाना। मूल्यांकन विद्यालय के समस्त कार्यक्रमों का किया जाता है। विद्यालय का मूल्यांकन निम्न आधार पर किया जा सकता है-
  • (क) किन-किन उद्देश्यों की प्राप्ति हो सके, पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से।
  • (ख) किन उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
  • (ग) उद्देश्य प्राप्त न होने का कारण ज्ञात करना।
  • विद्यालय के संपूर्ण मूल्यांकन के साथ शिक्षकों तथा शिक्षणेतर कर्मचारियों के कार्यों का मूल्यांकन व्यक्तिगत आधार पर किया जाता है। यह मूल्यांकन शिक्षकों को दिए गए दायित्वों के संदर्भ में किया जाता है। व्यक्तिगत मूल्यांकन निम्न आधार पर किया जाता है-
  • कार्य पूरा करने की अवधि
  • कार्य की गुणवत्ता
  • कार्य की कमियां तथा कारण
  • प्रशिक्षण तथा निर्देशन की आवश्यकता का अनुमान लगाना
  • संस्था के अन्य शिक्षकों से संबंध
  • छात्रों के साथ शिक्षक के संबंध
  • मूल्यांकन ही यह प्रदर्शित करता है कि कार्य विधिवत किया गया है या नहीं। इसके आधार पर भावी शैक्षिक गतिविधियों में सुधार किया जा सकता है तथा वांछित परिवर्तन किए जा सकते हैं।

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