समस्या का स्वरूप
हमारे देश में माध्यमिक शिक्षा को व्यवसाय से जोड़ने का सुझाव सर्वप्रथम भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन, 1882) ने दिया था। उसने माध्यमिक स्तर पर दो प्रकार के पाठ्यक्रम शुरू करने का सुझाव दिया
(अ) साहित्यिक और (ब) व्यावसायिका
उसके बाद होग समिति, 1929 ने माध्यमिक स्तर सुर व्यावसायिक एवं औद्योगिक विषयों के समावेश का सुझाव दिया। वुड एवं ऐबर्ट रिपोर्ट, 1937 में पुनः यो प्रकार के माध्यमिक विद्यालयों-साहित्यिक एवं व्यावसायिक स्थापित करने का सुझाव दिया गया। सार्जेन्ट योजना, 1944 में हन्टर कमीशन और वुड एवं ऐबट रिपोर्ट के सुझावों का अनुमोदन करते हुए माध्यमिक विद्यालयों को दो वर्गों साहित्यिक एवं तकनीकी में विभाजित करने का सुझाव दिया गया।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद माध्यमिक शिक्षा में सुधार हेतु सुझाव देने के लिए माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर कमीशन, 1952) का गठन किया गया। इस आयोग ने अपना प्रतिवेदन 1953 में प्रस्तुत किया। इसने माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम के विविधीकरण (Diversification of Courses) का सुझाव दिया और उनके संचालन के लिए बहुउद्देशीय विद्यालयों (Multipurpose Schools) की स्थापना का सुझाव दिया। माध्यमिक पाठ्यक्रम के विविधीकरण से उसका तात्पर्य माध्यमिक स्तर के सामान्य पाठ्यक्रमों के साथ विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक पाठ्यक्रम, जजैसे कृषि, वाणिज्य एवं तकनीकी शुरू करने से था। आयोग का विश्वास था कि इस प्रकार के व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को पूरा कर छात्र अपनी जीविका कमा सकेंगे और देश के आर्थिक विकास को गति मिलेगी।
भारतीय सरकार ने यह कार्य प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) में ही शुरू कर दिया। दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) में लगभग 1900 माध्यमिक स्कूलों को बहुउद्देशीय स्कूलों में परिवर्तित किया गया। तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-66) में यह कार्य जारी रहा। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969-74) में बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थिति में सुधार किया गया। परन्तु इन पाठ्यक्रमों के शुरू करने से लाभ कुछ नहीं हुआ, केवल धन, समय व शक्ति का अपव्यय भर हुआ।
असफलता के कारण
बहुउद्देशीय स्कूल विविध पाठ्यक्रम चलाकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सफल नहीं हुए। इसके मुख्य कारण थे-
(1) प्रथम कारण तो यह था कि इन विविध व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को सामान्य पाठ्यक्रमों के साथ चलाया गया था, किशोर बच्चों पर कुल मिलाकर आठ विषयों के अध्ययन का बोझ बढ़ गया था, वे उनके सैद्धान्तिक ज्ञान में ही उलझे रहते थे, व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के प्रायोगिक पक्ष के नाम पर खानापूरी भर होती थी।
(2) दूसरा कारण यह था कि सरकार ने बहुउद्देशीय पाठ्यक्रमों की व्यवस्था करने के लिए जो आर्थिक सहायता दी वह अपर्याप्त थी और जो धनराशि दी भी गई उसके भी 50% से अधिक का बन्दर बॉट हो गया।
(3) तीसरा कारण यह था कि पैसे की कमी के कारण इन विद्यालयों में आवश्यक प्रयोगशाला,कार्यशाला व अन्य सामग्री की उचित व्यवस्था नहीं की जा सकी।
(4) चौथा कारण था इन व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए दक्ष एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी।
(5) और जिन बहुउद्देशीय स्कूलों में इन सबकी व्यवस्था थी भी उनमें से अधिकतर में शिक्षकों ने ईमानदारी एवं निष्ठा से कार्य नहीं किया और न छात्र-छात्राओं ने।
समस्या का समाधान
सच बात यह है कि इस स्तर पर सामान्य पाठ्यक्रमों के साथ व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को चलाना एक भूल थी। इसमें तो कोई भी सुधार करने से कोई लाभ होना नहीं था इसलिए कोठारी कमीशन, 1964-66 ने समान शिक्षा संरचना 10+2+3 प्रस्तावित की और माध्यमिक स्तर पर कार्यानुभव (Work Experience) और +2 पर विभिन्न व्यवसायों की शिक्षा का सुझाव दिया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा के स्थान पर कार्यानुभव (Work Experience) जोड़ने की घोषणा की गई और व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की शुरुआत +2 पर करने की घोषणा की गई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने इस पर मोहर ठोक दी। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) ने 2005 में प्रथम 10 वर्षीय एवं +2 की आधारभूत पाठ्यचर्या की जो रूपरेखाएँ प्रस्तुत की हैं उनमें माध्यमिक स्तर (कक्षा 194 9 कक्षा 10) पर कार्यानुभव (Work Experience) के स्थान पर कार्य शिक्षा (Work Education) का प्रस्ताव किया है और सी पर मेधावी छात्रओं के लिए सामान्य पाठ्यक्रम और सामान्य छात्रों के लिए आावसायिक पाठ्यक्रम प्रस्तावित किए हैं। इस प्रकार विविधीकरण की समस्या का समाधान करने के स्थान पर अब उसे त्याग दिया गया है।