शिक्षण की समस्या समाधान विधि (Problem Solving Method Of Teaching)
समस्या समाधान विधि का जन्म प्रयोजनावाद के फलस्वरूप हुआ है। समस्या समाधान विधि के प्रबल समर्थको में किलपेट्रिक और जॉन डीवी का नाम उल्लेखनीय है।
समस्या समाधान विधि योजना विधि से पर्याप्त समानता है। इन दोनों विधियों में अंतर इस बात का है कि योजना विधि में प्रायोगिक कार्य को महत्व दिया जाता है।
यह प्रायोगिक कार्य एक वास्तविक स्थिति में संपन्न किया जाता है जबकि समस्या समाधान विधि में मानसिक निष्कर्षों पर अधिक बल दिया जाता है।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि योजना विधि में शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की क्रियाएं सम्मिलित है जबकि समस्या समाधान विधि में केवल मानसिक हल ही प्रदान किया जाता हैं।
इस प्रकार समस्या समाधान विधि विद्यार्थी की मानसिक क्रिया पर आधारित विधि है जिसमे छात्र समस्या का चयन करके स्वयं के विचारो और तर्क शक्ति के आधार पर मानसिक रूप से समस्या का हल ढूंढ कर नवीन ज्ञान प्राप्त करता है।
स्किनर के शब्दों में – “समस्या समाधान विधि एक ऐसी रूपरेखा है जिसमे सृजनात्मक चिंतन तथा तर्क होते है।”
इस विधि के निम्नांकित सोपान हैं-
(1) समस्या का चयन,
(2) समस्या का प्रस्तुतीकरण,
(3) तथ्यों का एकत्रीकरण,
(4) परिकल्पना का निर्माण,
(5) समाधानात्मक निष्कर्ष पर पहुँचना,
(6) मूल्यांकन,
(7) कार्य का आलेखन ।
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विशेषताएँ (Characteristics)
(1) छात्र समस्याओं का स्वतः हल करना सीखते हैं।
(2) उनमें निरीक्षण एवं तर्क शक्ति का विकास होता है।
(3) वे सामान्यीकरण करने में समर्थ होते हैं।
(4) वे आँकड़ों के एकीकरण, मूल्यांकन एवं निष्कर्ष निकालने की प्रक्रियाओं से परिचित होते हैं।
(5) नवीन सन्दर्भ में पुराने तथ्यों का प्रयोग करना सीखते हैं।
(6) मिल-जुलकर कार्य करने की भावना जाग्रत होती है।
(7) यह प्रेरणात्मक विधि है।
(8) यह “Learning by doing” पर आधारित है।
गुण-
(1) इस विधि के प्रयोग से छात्र सबसे उत्तम क्या है? के विषय में सोचना, निर्णय, तुलना तथा मूल्याकंन करना सीख जाते हैं।
2) इस विधि के प्रयोग से छात्र समस्या हल करने के ढंग को सीख जाते हैं।
(3)इसके द्वारा छात्र तथ्यों को संग्रह एवं व्यवस्थित करना सीख जाते हैं।
(4) इससे बालकों में स्वाध्ययन की आदत का निर्माण होता है।
(5)इसके द्वारा राष्ट्रीय एंव सामाजिक समस्याओं के आर्थिक पक्षों को समझने की सूझ का विकास होता है।
(6)इससे छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न हो जाता है तथा वे मुद्रित पृष्ठों का अन्धानुकरण नहीं करते।
(7) इसके प्रयोग से छात्र स्व-क्रिया द्वारा ज्ञान अर्जित करते हैं।
(8) यह विधि छात्रों को अपने ज्ञान को समन्वित करने में सहायता देती है।
(9) इसमें वैयक्तिक विभिन्नताओं को संतुष्ट किया जाता है।
दोष (Demerits) या सीमायें –
(1) समय और शक्ति का अपव्यय होता है।
(2) इस विधि में निष्कर्ष के गलत होने का भी भ्रम बना रह सकता है।
(3) इस विधि के प्रयोग के लिए योग्य शिक्षकों की आवश्यकता है।
( 4 ) यह विधि छोटी कक्षाओं में उपयोगी नहीं है।
5) यदि इस विधि का प्रयोग बारम्बार किया गया तो यह नीरस एवं यान्त्रिक बन जाती है।
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