जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क की भूमिका|Germany ke ekikaran me bismarck ki bhumika

Germany ke ekikaran me bismarck ki bhumika
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इस लेख में जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क की भूमिका|Germany ke ekikaran me bismarck ki bhumika का विस्तृत वर्णन किया गया है।

इस लेख में जर्मनी के एकीकरण की ऐतिहासिक प्रक्रिया और उसमें ओटो वॉन बिस्मार्क की भूमिका को समझाया गया है।

इसमें फ्रांसीसी क्रांति से फैली राष्ट्रवाद की लहर, 1815 का जर्मन परिसंघ, 1834 का जोलवेरिन (आर्थिक एकता), 1848 की असफल क्रांति, बिस्मार्क का उदय और उसकी “लौह एवं रक्त” नीति का वर्णन है।

साथ ही डेनमार्क युद्ध (1864), ऑस्ट्रिया युद्ध (1866), फ्रांस युद्ध (1870–71) और अंततः 1871 में जर्मनी के पूर्ण एकीकरण की घटनाएँ बताई गई हैं।

इस लेख को पढ़कर आपको यह जानकारी होगी कि जर्मनी का एकीकरण बिस्मार्क की राष्ट्रवादी कूटनीति और सैन्य रणनीति का परिणाम था।

जर्मनी का एकीकरण बिस्मार्क की राष्ट्रवादी कूटनीति का परिणाम था OR Germany ke ekikaran me bismarck ki bhumika – व्याख्या

प्रस्तावना

यूरोपीय इतिहास में 19वीं शताब्दी को राष्ट्रवाद की शताब्दी कहा जाता है। इस समय यूरोप के विभिन्न हिस्सों में राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रियाएँ चलीं। इटली और जर्मनी के एकीकरण ने यूरोपीय राजनीति की दिशा ही बदल दी।

जर्मनी का एकीकरण (1871) कोई साधारण घटना नहीं थी, बल्कि यह यूरोप की शक्ति-संरचना (Balance of Power) को बदल देने वाली घटना थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि जर्मनी के एकीकरण में जर्मन जनता की राष्ट्रवादी चेतना, आर्थिक और सांस्कृतिक एकता, तथा ऐतिहासिक परिस्थितियों का योगदान रहा, परंतु निर्णायक भूमिका बिस्मार्क की राष्ट्रवादी कूटनीति ने निभाई। इसी कारण इतिहासकार बिस्मार्क को “जर्मन एकीकरण का शिल्पकार” कहते हैं।

जर्मनी की राजनीतिक पृष्ठभूमि

1815 में नेपोलियन युद्धों की समाप्ति के बाद वियना कांग्रेस ने यूरोप का नया राजनीतिक नक्शा बनाया। जर्मनी को 39 छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित कर एक ढीला-ढाला “जर्मन परिसंघ” (German Confederation) बना दिया गया। इन राज्यों में सबसे शक्तिशाली राज्य प्रशा (Prussia) और ऑस्ट्रिया थे।

ऑस्ट्रिया लंबे समय तक जर्मन मामलों में प्रमुख शक्ति बनी रही, परंतु उसकी बहु-जातीय संरचना (Multinational Empire) के कारण वह जर्मन राष्ट्रवाद का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं थी। इसके विपरीत प्रशा अधिक सुसंगठित, सशक्त और आधुनिक था। यही कारण था कि अंततः जर्मनी के एकीकरण का नेतृत्व प्रशा और उसके प्रधानमंत्री बिस्मार्क ने किया।

आर्थिक और सांस्कृतिक एकता की भूमिका

1834 में प्रशा की पहल पर “जोलवेरिन” (Zollverein – सीमा शुल्क संघ) की स्थापना हुई। इसके अंतर्गत जर्मन राज्यों के बीच सीमा शुल्क हटा दिए गए और एक साझा आर्थिक व्यवस्था बनी। इससे आर्थिक एकीकरण की नींव पड़ी और जर्मन जनता को यह अनुभव हुआ कि एकता में आर्थिक समृद्धि है। इसके अलावा, गोएथे, शिलर जैसे साहित्यकारों और बीथोवन जैसे संगीतकारों ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया। इस प्रकार जर्मनी में एक साझा सांस्कृतिक और आर्थिक चेतना विकसित हुई, जिसने राजनीतिक एकीकरण की पृष्ठभूमि तैयार की।

1848 की असफल क्रांति

1848 में यूरोप में राष्ट्रवादी और उदारवादी क्रांतियों की लहर उठी। जर्मनी में भी एकीकृत जर्मन राष्ट्र की मांग उठी। फ्रैंकफर्ट असेंबली ने उदारवादी संविधान के आधार पर जर्मनी के एकीकरण का प्रयास किया। लेकिन प्रशा के सम्राट ने “ताज को जनता की भेंट” कहकर अस्वीकार कर दिया और यह क्रांति विफल हो गई। इस असफलता के बाद यह स्पष्ट हो गया कि जर्मनी का एकीकरण उदारवादियों के हाथों संभव नहीं है, बल्कि इसके लिए शक्ति और कूटनीति का सहारा लेना पड़ेगा। यही कार्य बाद में बिस्मार्क ने किया।

बिस्मार्क का उदय और नीतियाँ

ओट्टो वॉन बिस्मार्क (1815–1898) 1862 में प्रशा का प्रधानमंत्री बना। वह अत्यंत व्यवहारवादी, व्यावहारिक और कूटनीति में माहिर था। उसकी राजनीति को Realpolitik (यथार्थवादी राजनीति) कहा गया। उसने संसद में स्पष्ट घोषणा की –

“जर्मनी का भविष्य भाषणों और प्रस्तावों से तय नहीं होगा, बल्कि लौह और रक्त (Blood and Iron) से होगा।”

बिस्मार्क ने जर्मनी के एकीकरण की दिशा में योजनाबद्ध तरीके से कदम बढ़ाए। उसकी रणनीति यह थी कि प्रशा को केंद्र बनाकर पहले ऑस्ट्रिया को अलग-थलग किया जाए और फिर फ्रांस को पराजित कर शेष जर्मन राज्यों को एकजुट किया जाए।

बिस्मार्क का मुख्य उद्देश्य था—

1. जर्मनी का एकीकरण करना।

2. प्रशा की प्रधानता स्थापित करना।

3. ऑस्ट्रिया को जर्मन मामलों से बाहर करना।

4. यूरोपीय शक्तियों को संतुलित रखते हुए प्रशा के हितों की रक्षा करना।

उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु बिस्मार्क ने क्रमशः तीन युद्ध लड़े और अंततः जर्मनी को एकीकृत कर दिया।

प्रथम चरण : डेनमार्क युद्ध (1864)

1864 में डेनमार्क ने श्लेसविग और होल्सटीन प्रदेशों पर कब्जा करने की कोशिश की। बिस्मार्क ने कूटनीति से ऑस्ट्रिया को सहयोगी बना लिया और प्रशा-ऑस्ट्रिया ने मिलकर डेनमार्क को पराजित किया। शांति संधि के अनुसार श्लेसविग प्रशा को और होल्सटीन ऑस्ट्रिया को मिला। इस युद्ध का महत्व यह था कि इससे जर्मन जनता को प्रशा की शक्ति पर विश्वास हुआ और बिस्मार्क ने भविष्य के लिए ऑस्ट्रिया से टकराव की भूमिका तैयार की।

द्वितीय चरण : ऑस्ट्रिया युद्ध (1866) – सात सप्ताह का युद्ध

डेनमार्क युद्ध के बाद श्लेसविग-होल्सटीन विवाद को लेकर प्रशा और ऑस्ट्रिया में तनाव बढ़ा। बिस्मार्क ने चतुराई से फ्रांस और रूस को तटस्थ बनाए रखा तथा इटली को सहयोगी बना लिया। 1866 में सैडोवा (कॉनिगग्रेत्ज़) की निर्णायक लड़ाई में ऑस्ट्रिया पराजित हुआ। युद्ध केवल सात सप्ताह चला और इसका परिणाम यह हुआ कि जर्मन परिसंघ भंग कर दिया गया तथा उत्तरी जर्मन राज्यों का “नॉर्थ जर्मन परिसंघ” प्रशा के नेतृत्व में बना। ऑस्ट्रिया को जर्मन मामलों से बाहर कर दिया गया। यह बिस्मार्क की बड़ी सफलता थी।

तृतीय चरण : फ्रांस-प्रशा युद्ध (1870–71)

अब समस्या यह थी कि दक्षिणी जर्मन राज्य अभी तक प्रशा के अधीन नहीं आए थे। बिस्मार्क जानता था कि केवल बाहरी शत्रु का भय ही उन्हें एकजुट करेगा। उसने स्पेन के सिंहासन विवाद को उकसाकर फ्रांस और प्रशा के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी। एम्स टेलीग्राम प्रकरण में बिस्मार्क ने एक संदेश को इस प्रकार प्रकाशित किया कि फ्रांस अपमानित महसूस करे और युद्ध की घोषणा कर दे।
युद्ध में प्रशा और उसके सहयोगी जर्मन राज्यों ने फ्रांस को हराया।

1870 में सेडान की लड़ाई में फ्रांसीसी सम्राट नेपोलियन तृतीय बंदी बना लिया गया। फ्रांस को 1871 की फ्रैंकफर्ट संधि के अनुसार एल्सास और लोरेन प्रदेश जर्मनी को देने पड़े और भारी क्षतिपूर्ति भी चुकानी पड़ी। इस युद्ध से दक्षिणी जर्मन राज्य भी प्रशा के साथ एकजुट हो गए।

जर्मनी का औपचारिक एकीकरण (1871)

18 जनवरी 1871 को फ्रांस की राजधानी पेरिस के निकट वर्साय पैलेस के “हॉल ऑफ मिरर्स” में प्रशा के सम्राट विलियम प्रथम को “जर्मन सम्राट” (Kaiser) घोषित किया गया। बिस्मार्क को नए जर्मन साम्राज्य का “चांसलर” बनाया गया। इस प्रकार जर्मनी एक शक्तिशाली, संघीय साम्राज्य के रूप में यूरोप के नक्शे पर उभरा।

बिस्मार्क की राष्ट्रवादी कूटनीति की विशेषताएँ

1. यथार्थवाद (Realpolitik): बिस्मार्क ने आदर्शवाद या लोकतांत्रिक सिद्धांतों के बजाय शक्ति और अवसरवाद पर आधारित नीति अपनाई।

2. कूटनीतिक चातुर्य: उसने पहले ऑस्ट्रिया से मित्रता कर डेनमार्क को हराया, फिर ऑस्ट्रिया को अलग किया और अंततः फ्रांस को उकसाकर एकीकरण पूर्ण किया।

3. सैन्यवाद: उसकी नीति “लौह और रक्त” पर आधारित थी। उसने बार-बार युद्धों को एकीकरण का साधन बनाया।

4. राष्ट्रीय भावना का उपयोग: उसने युद्धों को राष्ट्रवाद का रूप देकर जनता को एकजुट किया।

5. संतुलन नीति: बिस्मार्क ने कभी रूस, कभी इटली और कभी ब्रिटेन का समर्थन लेकर अपने विरोधियों को अलग-थलग किया।

जर्मनी के एकीकरण के परिणाम

  • जर्मनी के एकीकरण का प्रभाव न केवल जर्मनी पर बल्कि पूरे यूरोप पर पड़ा।
  • जर्मनी एक शक्तिशाली औद्योगिक और सैन्य शक्ति बन गया।
  • फ्रांस और जर्मनी की शत्रुता गहरी हो गई, जिसने आगे चलकर प्रथम विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि बनाई।
  • यूरोप का शक्ति-संतुलन बदल गया और जर्मनी महाशक्ति के रूप में उभरा।
  • राष्ट्रवाद की लहर अन्य क्षेत्रों में भी तेज हुई, जैसे इटली और बाल्कन।
  • बिस्मार्क की नीति ने आधुनिक यूरोपीय राजनीति में सैन्यवाद और यथार्थवाद की प्रवृत्ति को मजबूत किया।

निष्कर्ष

जर्मनी का एकीकरण केवल जर्मन जनता की राष्ट्रवादी चेतना या आर्थिक-सांस्कृतिक कारकों का परिणाम नहीं था। इन सबने भूमिका अवश्य निभाई, परंतु निर्णायक भूमिका बिस्मार्क की राष्ट्रवादी कूटनीति ने निभाई। उसने अपनी सूझ-बूझ, युद्धनीति और कूटनीतिक चालों से जर्मन एकीकरण को संभव बनाया। इसी कारण इतिहासकार कहते हैं –

“यदि बिस्मार्क न होता, तो जर्मनी का एकीकरण शायद बहुत देर से होता या कभी नहीं होता।”

जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क की भूमिका|Germany ke ekikaran me bismarck ki bhumika

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