कोणार्क सूर्य मंदिर का तल विन्यास तथा स्थापत्य कला की मुख्य विशेषताएँ

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इस लेख – कोणार्क सूर्य मंदिर का तल विन्यास तथा स्थापत्य कला की मुख्य विशेषताएँ – में कोणार्क सूर्य मंदिर के निर्माणकाल, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, स्थापत्य शैली, तलों के विन्यास (गर्भगृह, जगमोहन, नाटमंडप), रथाकार योजना, मूर्तिकला, वैज्ञानिक और कलात्मक विशेषताओं, प्रतीकात्मक अर्थ तथा वर्तमान स्थिति का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसे पढ़कर पाठक को मंदिर की स्थापत्य सुंदरता, धार्मिक महत्व और भारतीय कला एवं विज्ञान के समन्वय का गहन ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रस्तावना

कोणार्क सूर्य मंदिर का तल विन्यास तथा स्थापत्य कला की मुख्य विशेषताएँ – भारतीय स्थापत्य कला के इतिहास में उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा) का कोणार्क सूर्य मंदिर एक अनुपम रत्न के रूप में प्रतिष्ठित है। यह मंदिर भारतीय वास्तुशिल्प, मूर्तिकला, धार्मिक दर्शन तथा वैज्ञानिक दृष्टि के सामंजस्य का सर्वोत्तम उदाहरण है। यह मंदिर न केवल एक धार्मिक तीर्थस्थल के रूप में, बल्कि एक सांस्कृतिक धरोहर, स्थापत्य कला के शिखर और वैज्ञानिक सोच के प्रतीक के रूप में विश्व में प्रसिद्ध है। भारत में निर्मित अनेक मंदिरों में कोणार्क का सूर्य मंदिर अपनी विशिष्ट शैली, रचना योजना और कलात्मकता के कारण सर्वाधिक अद्भुत और अद्वितीय माना जाता है।

इस मंदिर का निर्माण तेरहवीं शताब्दी में हुआ था और आज, सैकड़ों वर्षों के बाद भी, इसकी शेष संरचनाएँ अपनी भव्यता से इतिहास और कला के विद्यार्थियों को आकर्षित करती हैं। कोणार्क शब्द का अर्थ है — ‘कोण’ अर्थात दिशा, और ‘अर्क’ अर्थात सूर्य। इस प्रकार ‘कोणार्क’ का अर्थ हुआ ‘सूर्य की दिशा’ या ‘सूर्य का स्थान’। यह मंदिर सूर्य देवता को समर्पित है, जो हिंदू धर्म में प्रकाश, ऊर्जा और जीवन के प्रतीक माने जाते हैं।

निर्माण काल और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण 13वीं शताब्दी में पूर्वी गंग वंश के प्रसिद्ध शासक राजा नरसिंहदेव प्रथम (1238–1264 ई.) के शासनकाल में हुआ था। यह काल उड़ीसा में कला और स्थापत्य के उत्कर्ष का युग था। राजा नरसिंहदेव ने अपने शासनकाल में न केवल राजनीतिक दृष्टि से उड़ीसा को सशक्त बनाया, बल्कि कला, साहित्य और धर्म के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।

ऐतिहासिक अभिलेखों और शिलालेखों से ज्ञात होता है कि कोणार्क मंदिर का निर्माण लगभग 1250 ई. में पूर्ण हुआ। इसका निर्माण कार्य बारह वर्षों तक चला और इसमें हज़ारों शिल्पियों, मूर्तिकारों और कारीगरों ने भाग लिया। लोककथाओं के अनुसार, इस विशाल मंदिर के निर्माण में लाखों पत्थरों का प्रयोग किया गया था और इसे पूर्ण करने में अनेक मानव जीवनों का योगदान रहा।

यह मंदिर उस समय की स्थापत्य तकनीक, गणितीय मापन, दिशानिर्धारण और खगोल विज्ञान के गहरे ज्ञान का प्रमाण है। कहा जाता है कि इसे इस प्रकार बनाया गया था कि सूर्य की पहली किरण सीधे गर्भगृह में स्थापित सूर्य मूर्ति के मस्तक पर पड़ती थी।

कोणार्क मंदिर की स्थापत्य शैली

कोणार्क सूर्य मंदिर उड़ीसा की विशिष्ट कलिंग शैली में निर्मित है। कलिंग स्थापत्य शैली में मंदिर को सामान्यतः तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जाता है —

  1. विमान (गर्भगृह या देवालय का शिखर भाग),
  2. जगमोहन (सभा मंडप या भोगमंडप),
  3. नाटमंडप (नृत्य एवं संगीत का मंच)।

इस शैली की विशेषता यह है कि इसमें मंदिर की योजना और ऊर्ध्व रचना दोनों में समरसता होती है। कोणार्क मंदिर इस शैली का सर्वोच्च उदाहरण माना जाता है, जिसमें स्थापत्य, मूर्तिकला और प्रतीकवाद का ऐसा सुंदर मेल देखने को मिलता है जो अन्यत्र दुर्लभ है।

मंदिर का तल-विन्यास (Ground Plan)

कोणार्क सूर्य मंदिर की संपूर्ण संरचना एक रथ के आकार में निर्मित है। इस रथ में बारह विशाल पहिए और सात घोड़े हैं, जो सूर्य देव के दिव्य रथ का प्रतीक हैं। यह रचना केवल कलात्मक नहीं बल्कि वैज्ञानिक भी है — प्रत्येक पहिया समय की गणना करने वाला एक यंत्र (सूर्य घड़ी) है।

मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व दिशा की ओर है, जो सूर्य के उदय की दिशा है। इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य की पहली किरण सीधे गर्भगृह में स्थित सूर्य देव की मूर्ति पर पड़ती थी। मंदिर का पूरा आधार आयताकार है और इसे ऊँचे मंच पर निर्मित किया गया है।

मंदिर के तल-विन्यास में निम्नलिखित भाग सम्मिलित हैं —

  1. गर्भगृह (विमान)
  2. जगमोहन (सभा मंडप)
  3. नाटमंडप (नृत्यशाला)
  4. भोगमंडप (अन्नागार) — जो बाद में जोड़ा गया भाग था।

गर्भगृह (विमान) का विन्यास

विमान मंदिर का सर्वाधिक पवित्र और केंद्रीय भाग था। यह वह स्थान था जहाँ सूर्य देव की प्रतिमा स्थापित थी। इस भाग की ऊँचाई लगभग 70 मीटर (229 फीट) थी, जिससे यह दूर से ही दिखाई देता था। यह भाग आज अधिकांशतः ध्वस्त हो चुका है, किंतु इसके आधार और कुछ दीवारें अब भी विद्यमान हैं।

विमान की रचना पंचरथ शैली की थी, अर्थात इसमें पाँच उभरे हुए खंड या ‘रथ’ थे। गर्भगृह के चारों ओर सूर्य देव की चार मूर्तियाँ स्थापित थीं —

पूर्व दिशा में — उगते सूर्य का रूप (प्रभात सूर्य)

दक्षिण दिशा में — मध्याह्न सूर्य

पश्चिम दिशा में — अस्ताचल सूर्य

उत्तर दिशा में — अरुण सूर्य या रथसारथी

ये मूर्तियाँ सूर्य देव के दिनभर के गतिशील रूपों का प्रतीक हैं, जो यह दर्शाती हैं कि यह मंदिर ब्रह्मांडीय समय चक्र का प्रतिनिधित्व करता है।

जगमोहन (सभा मंडप) का विन्यास

गर्भगृह के ठीक आगे स्थित जगमोहन मंदिर का दूसरा प्रमुख भाग है। यह एक विशाल सभागृह है जहाँ भक्तगण पूजा और अनुष्ठान करते थे। यह भाग आज भी लगभग सुरक्षित है।

जगमोहन की छत पिरामिडीय आकार की है, जो पाँच स्तरों में ऊपर उठती है और प्रत्येक स्तर पर सुंदर शिखराकार अलंकरण बने हैं। भीतर चार विशाल स्तंभ हैं जो छत को सहारा देते हैं। दीवारों पर अत्यंत सूक्ष्म मूर्तिकला उकेरी गई है जिसमें नृत्य करती अप्सराएँ, देवदूत, गंधर्व, युद्ध के दृश्य, संगीत वाद्य बजाते कलाकार, पशु-पक्षी और लोक जीवन के विविध प्रसंग अंकित हैं।

इस मंडप के प्रवेश द्वार पर अत्यंत भव्य द्वारपाल मूर्तियाँ हैं और इसके स्तंभों पर पुष्पमालाएँ, बेलबूटे, और ज्यामितीय आकृतियाँ निर्मित हैं।

नाटमंडप (नृत्यशाला)

जगमोहन के आगे एक खुला मंचनुमा भाग है जिसे नाटमंडप कहा जाता है। यह भाग धार्मिक अनुष्ठानों, नृत्य और संगीत के कार्यक्रमों के लिए प्रयोग किया जाता था। यहाँ ओडिशा की प्रसिद्ध ओडिसी नृत्य शैली के प्रारंभिक रूप के मूर्तिगत साक्ष्य मिलते हैं।

दीवारों पर नृत्य करती हुई नर्तकियों, संगीत वाद्य बजाते कलाकारों और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अंकित हैं। उनकी मुद्राएँ और भाव भंगिमाएँ इतनी जीवंत हैं कि ऐसा प्रतीत होता है जैसे पत्थर बोल रहे हों। यह नाटमंडप मंदिर की सांस्कृतिक और कलात्मक समृद्धि का प्रतीक है।

रथ का प्रतीकात्मक अर्थ

कोणार्क मंदिर का संपूर्ण तल-विन्यास सूर्य देव के दिव्य रथ के रूप में निर्मित है। इस रथ में बारह विशाल पहिए और सात घोड़े हैं। ये पहिए वर्ष के बारह महीनों का और घोड़े सप्ताह के सात दिनों का प्रतीक हैं।

प्रत्येक पहिए में आठ तीलियाँ हैं जो दिन के आठ प्रहरों का संकेत देती हैं। इन पहियों की बनावट इतनी वैज्ञानिक है कि सूर्य की छाया के माध्यम से समय का अनुमान लगाया जा सकता था। इस प्रकार यह मंदिर केवल धार्मिक प्रतीक ही नहीं, बल्कि एक खगोलीय यंत्र भी था।

कोणार्क मंदिर की मूर्तिकला

कोणार्क सूर्य मंदिर की दीवारों, आधारशिलाओं और स्तंभों पर इतनी सूक्ष्म मूर्तियाँ अंकित हैं कि इसे “पत्थरों में उत्कीर्ण महाकाव्य” कहा गया है। मूर्तियों में धार्मिक, लौकिक, पौराणिक, सामाजिक और कलात्मक सभी विषयों का चित्रण है।

मूर्तिकला के प्रमुख विषय इस प्रकार हैं —

  1. देव प्रतिमाएँ — सूर्य, विष्णु, शिव, गणेश, दुर्गा आदि।
  2. मानव जीवन के दृश्य — युद्ध, शिकार, नृत्य, संगीत, प्रेम, विवाह आदि।
  3. प्रकृति और पशु-पक्षी — हाथी, घोड़े, सिंह, मोर, कमल, लताएँ आदि।
  4. नारी सौंदर्य का चित्रण — दर्पण देखती स्त्री, नृत्य करती नारी, शृंगार करती हुई कन्या आदि।

यह सब न केवल कला का प्रदर्शन है बल्कि जीवन के विविध रूपों की अभिव्यक्ति भी है।

स्थापत्य कला की विशेषताएँ

कोणार्क सूर्य मंदिर की प्रमुख स्थापत्य कला की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं —

  1. दिशा-निर्धारण की सटीकता:
    मंदिर का निर्माण इस प्रकार किया गया कि उगते सूर्य की पहली किरण सीधे गर्भगृह में प्रवेश करे।
  2. सूर्य घड़ी का सिद्धांत:
    पहियों की तीलियाँ समय ज्ञात करने के लिए बनाई गई थीं। सूर्य की छाया के माध्यम से दिन का समय मापा जा सकता था।
  3. धातु संयोजन तकनीक:
    मंदिर के पत्थरों को जोड़ने के लिए लोहे की छड़ें और धातु क्लैंप प्रयुक्त किए गए थे, जिससे संरचना मजबूत बनी रही।
  4. जल-निकासी और वायु-संचार व्यवस्था:
    मंदिर में जल निकासी की वैज्ञानिक व्यवस्था थी और भीतर का तापमान संतुलित रखने के लिए वायु-संचार के मार्ग बने थे।
  5. शिल्प और गणितीय सटीकता:
    पूरी संरचना में अनुपात, सममिति और संतुलन का गहरा गणितीय ज्ञान झलकता है। प्रत्येक भाग को ज्यामितीय सटीकता के साथ तैयार किया गया है।

कलात्मक एवं सांस्कृतिक विशेषताएँ

कोणार्क मंदिर केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि यह उस युग की सांस्कृतिक जीवनशैली का दर्पण है। मंदिर की दीवारों पर अंकित मूर्तियाँ नृत्य, संगीत, उत्सव, युद्ध, शिकार और दैनिक जीवन की झलक प्रस्तुत करती हैं।

यह मंदिर उड़ीसी नृत्य, संगीत और लोककला की उत्पत्ति का केंद्र रहा है। मूर्तियों में नारी की सौंदर्य चेतना, सामाजिक उत्सवों का उल्लास और मानवीय भावनाओं की गहराई झलकती है।

इस मंदिर में कामकला की मूर्तियाँ भी अंकित हैं, जो केवल यौन प्रतीक नहीं बल्कि जीवन की सृजनात्मक शक्ति और आध्यात्मिक एकता के प्रतीक के रूप में देखी जाती हैं।

वर्तमान स्थिति

समय, आंधी, तूफान और समुद्री नमी के प्रभाव से इस मंदिर का अधिकांश भाग खंडहर में परिवर्तित हो चुका है। विशेषतः गर्भगृह का ऊपरी भाग 17वीं शताब्दी में गिर गया था। ब्रिटिश शासनकाल में इस स्थल की मरम्मत और संरक्षण का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा आरंभ किया गया।

वर्तमान में मंदिर परिसर को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल (UNESCO World Heritage Site) के रूप में 1984 में सूचीबद्ध किया गया है। यह स्थल आज भी लाखों पर्यटकों, कला प्रेमियों और शोधकर्ताओं को आकर्षित करता है।

प्रतीकवाद और दार्शनिक अर्थ

कोणार्क सूर्य मंदिर केवल एक स्थापत्य चमत्कार नहीं, बल्कि जीवन, समय और ब्रह्मांड की गति का प्रतीक भी है। सूर्य यहाँ केवल एक देवता नहीं बल्कि “सर्वव्यापक ऊर्जा” के रूप में पूजित हैं।

मंदिर के सात घोड़े सप्ताह के सात दिनों का, बारह पहिए वर्ष के बारह महीनों का, और आठ तीलियाँ दिन के आठ प्रहरों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस प्रकार यह मंदिर समय, दिशा और गति के शाश्वत चक्र का प्रतीक बन जाता है।

निष्कर्ष

कोणार्क सूर्य मंदिर भारतीय स्थापत्य, विज्ञान, कला और धर्म के संगम का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसके तलों का विन्यास केवल भौतिक निर्माण नहीं, बल्कि एक गहन प्रतीकात्मक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रतिफल है। मंदिर की प्रत्येक रचना, मूर्ति और रेखा में एक संदेश छिपा है — कि मनुष्य और प्रकृति, समय और गति, भक्ति और विज्ञान — सब एक-दूसरे के पूरक हैं।

आज यह मंदिर भले ही अपने पूर्ण रूप में विद्यमान नहीं है, परंतु इसके अवशेष आज भी भारतीय सभ्यता की गौरवगाथा सुनाते हैं। यह मंदिर यह सिखाता है कि भारत की कला केवल पूजा का माध्यम नहीं, बल्कि जीवन के दर्शन की अनुभूति है। कोणार्क सूर्य मंदिर अपने स्थापत्य, मूर्तिकला और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण विश्व की स्थापत्य धरोहरों में अमर है।


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