कार्ल मार्क्स का अलगाव का सिद्धांत (Marx’s Theory of Alienation)
मानवतावादी विचारक कार्ल मार्क्स ने पूंजीवादी समाज के आलोचना के विश्लेषण के क्रम में श्रमिकों के अमानवीय दशाओं के चित्रण करने हेतु अलगाव की अवधारणा को प्रस्तुत किया है और इसे (अलगाव को) एक ऐसी सामाजिक मनोवैज्ञानिक दशा या स्थिति के रूप में परिभाषित किया है जहां व्यक्ति अपने सामाजिक जीवन के मूलभूत पक्षों, से यहां तक की स्वयं से कटा हुआ महसूस करता है।
मार्क्स के अनुसार ‘कार्य’ मनुष्य की वैयक्तिकता, मानवता, और मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने का महत्वपूर्ण साधन है जिसके माध्यम से वह न केवल अपनी सृजनात्मक शक्ति का इस्तेमाल करके संतुष्टि पाता है बल्कि सामाजिक आवश्यकताओं को भी पूरा करता है। अतः कार्य केवल व्यक्तिगत कार्य नहीं बल्कि सामाजिक कार्य भी हैं और कार्य का यही रूप व्यक्ति एवं उसके कार्य के बीच संबंधों का आदर्श रूप है। परन्तु, निजी संपत्ति उद्भव के साथ ही मनुष्य और उसके कार्य का यह आदर्श संबंध समाप्त हो गया है जिसकी चरम परिणति पूंजीवादी व्यवस्थाओं में दृष्टिगत होती है। पूंजीवादी समाज में कार्य की दशाएं ऐसी होती हैं कि व्यक्ति का अपने कार्य से अलगाव हो जाता है। चूंकि कार्य एक सामाजिक तथ्य है, अतः कार्य से न अलगाव उसे समाज से भी अलग-थलग कर देता है। इस प्रकार न वह कार्य से अपने सहकर्मियों से और अंततः स्वयं से अलगावित हो जाता है।
मार्क्स ने पूंजीवादी समाज के अंतर्गत इस अलगाव के चार स्वरूपों की पहचान की है –
1. सर्वप्रथम मनुष्य अपने उत्पादन तथा उत्पादन प्रक्रिया से अलगावित हो जाता है क्योंकि यहां उसका कार्य उसको रचनात्मक कार्य का संतोष नहीं दे पाता है।
2. दूसरे, वह प्रकृति से भी अलगावित हो जाता है. क्योंकि, मशीनों पर कार्य करने के कारण उसका प्रकृति से संबंध टूट जाता है और वह प्रकृति का आनंद नहीं ले पाता।
3. तीसरे तीव्र प्रतिस्पर्द्धा की स्थिति उसे अपने सहचरों से अलगावित कर देती है।
4. अंततः वह अपने आप से पराया हो जाता है। विवशता उसके जीवन का प्रमुख पक्ष बन जाती है और संस्कृति. कला, साहित्य के प्रति कोई उसकी अभिरुचि नहीं रह जाती।
मार्क्स ने श्रमिकों की इस अलगाव की स्थिति के लिए पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में निहित जटिल श्रम विभाजन एवं उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व को उत्तरदायी बताया है। क्योंकि इस व्यवस्था में श्रमिक का उत्पादन संबंधी निर्णय प्रक्रिया पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। श्रमिक से यह नहीं पूछा जाता है कि क्या उत्पादन करना है एवं कैसे उत्पादन करना है। इस प्रणाली में उसकी रुचि को भी ध्यान में नहीं रखा जाता है।
उसे किसी कार्य का केवल एक भाग करना होता है फलतः वह किसी कार्य को पूर्णतया नहीं कर पाता है। इस प्रकार वह कार्य का पूर्णतया आनन्द नहीं ले पाता और अपनी सृजनात्मकता का उपयोग नहीं कर पाता है। उसे अपने द्वारा किये गये कार्य का पूरा लाभ नहीं मिल पाता है क्योंकि पूंजीपतियों द्वारा अतिरिक्त मूल्य का शोषण कर लिया जाता है।
अधिक समय तक (लगभग 12-16 घंटे) उसे मशीनों पर बंधाया काम करना पड़ता है। फलतः वह मशीन का बंधा पुर्जा बनकर रह जाता है। यहां इतनी अधिक प्रतिस्पर्धा होती है कि एक का लाभ दूसरे की हानि बन जाता है और कार्य का सामुदायिक पक्ष समाप्त हो जाता है।
इस प्रकार पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में उत्पादन का कार्य (श्रम) भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन न होकर स्वयं में साध्य हो जाता है और व्यक्ति अपनी सृजनात्मक प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति हेतु न करके केवल अपनी आजीविका हेतु करता है। फलतः उसे कार्य से पूर्ण संतुष्टि नहीं मिल पाती और उसका अपने कार्य से लगाव समाप्त हो जाता है।
मार्क्स अलगाव की इस स्थिति को मानव समाज का अस्थायी लक्षण मानते हुए इस बात की भविष्यवाणी करता है। कि जब श्रमिक अपने अलगाव के कारणों के बारे में जागरूक (वर्ग चेतना का विकास) हो जाएगा तब वह सामूहिक क्रांति (साम्यवादी क्रांति) द्वारा इस पूंजीवादी व्यवस्था का उन्मूलन कर साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना करेगा, जहां उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व होगा और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि के अनुसार सभी कार्य करेगा क्योंकि यहां जटिल श्रम विभाजन का अभाव होगा। फलतः यहां अलगाव की समाप्ति होगी और कार्य के साथ व्यक्ति का आदर्श संबंध स्थापित हो जाएगा।
आलोचनात्मक मूल्यांकन
मार्क्स के इस अलगाव संबंधी विचारों की आलोचना इस आधार पर की गयी है, –
1) मार्क्स ने अलगाव के कारणों को उत्पादन प्रणाली के संदर्भ में प्रस्तुत किया और इसकी सामाजिक दशाओं पर अधिक बल दिया है, परन्तु जब अलगाव को एक मनोवैज्ञानिक दशा के रूप में या इसके उद्भव को एक शोषणकारी व्यवस्था के संदर्भ में देखा जाए तो इससे मानव समाज में विद्यमान अलगाव के अन्य पक्षों (प्राचीन जाति व्यवस्था में विद्यमान अलगाव ) की व्याख्या संभव नहीं हो पाती है, जैसे अमेरिका में गोरों द्वारा कालों पर अत्याचार, बड़े जाति के लोगों द्वारा छोटी जाति का शोषण आदि आर्थिक आधार पर या उत्पादन प्रणाली पर आधारित नहीं हैं।
2. मार्क्स ने एक ऐसी व्यवस्था की (साम्यवादी व्यवस्था) कल्पना की है जहां अलगाव नहीं रहेगा और श्रम विभाजन का जटिल स्वरूप भी विद्यमान नहीं होगा जबकि उद्योग प्रधान समाज के किसी भी स्वरूप में श्रम विभाजन के अभाव की कल्पना अवैज्ञानिक है। वेबर ने बताया है कि चूंकि अलगाव का संबंध आधुनिक औद्योगिक प्रणाली से है, अतः व्यवस्था का कोई भी स्वरूप हो (पूंजीवादी या साम्यवाद) अलगाव अवश्य विद्यमान रहेगा।
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उपरोक्त आलोचनाएं निश्चित रूप से मार्क्स के अलगाव संबंधों विचारों में निहित कुछ एक कमियों को परिलक्षित करती हैं। बावजूद इसके निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मार्क्स की यह अवधारणा आधुनिक औद्योगिक समाजों में मनुष्य की सामाजिक-मनोवैज्ञानिक दशाओं और उनके कारणों का विश्लेषण करने या उसे समझने हेतु एक सन्दर्भ प्रदान करती है और अलगाव की व्याख्या के लिए एक वैचारिक उपकरण के रूप में आज भी महत्वपूर्ण है। आज इसी के प्रभाव स्वरूप जहां आधुनिक समाजवैज्ञानिकों-एरिक फ्राम, हरबर्ट मारक्यूज, ब्लाउनर आदि को आधुनिक पूंजीवादी समाज में अलगाव का अध्ययन करने हेतु प्रेरित किया है वहीं उत्तर फोर्डवादी व्यवस्था में आधुनिक औद्योगिक संगठनों में श्रमिकों की दशाओं में सुधार हेतु भी एक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया है।
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