संघर्ष सिद्धांत: रॉल्फ डेहरेनडॉर्फ
रॉल्फ डेहरनडॉर्फ का संघर्ष सिद्धांत मूलतः सत्ता के सम्बन्धों पर आधारित है। सत्ता संरचना प्रत्येक सामाजिक संगठन का एक अभिन्न भाग होती है; अनिवार्य रूप में स्वार्थ समूहों को संगठित करती है उन्हें निश्चित स्वरूप प्रदान करती है और इस रूप में संघर्ष की सम्भावनाओं को जन्म देती है। समाज में सत्ता का बंटवारा समान नहीं होता है, इसीलिए संघर्ष भी खड़ा हो जाता है। अपने लिए अधिकाधिक सत्ता प्राप्त करना स्वयं में ही सम्मानजनक होता है और सत्ता के आधार पर ही यह निश्चित होता है कि औरों के साथ उसका सम्बन्ध कैसा होगा। जो सत्ता प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं, वे उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं और जिनके पास सत्ता है वे उसे बनाए रखने की जी-जान से कोशिश करते हैं, इसी से टकराव या संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है।
डेहरेनडॉर्फ की मान्यता यह है कि संघर्ष का कारण सामाजिक संरचना में ही सन्निहित होता है एवं समाज का प्रत्येक भाग निरन्तर या लगातार परिवर्तित होता है। सामाजिक संरचना में परिवर्तन वर्गों के बीच होने वाले संघर्ष के फलस्वरूप होते हैं। डेहरेनडॉर्फ के अनुसार, “संरचना में होने वाले परिवर्तन के विभिन्न ढंग वर्ग संघर्ष के विभिन्न ढंगों के साथ-साथ बदलते रहते हैं। वर्ग-संघर्ष जितना तीव्र या प्रचण्ड होगा, उतना ही आमूल परिवर्तन घटित होगा; वर्ग-संघर्ष जितना अधिक हिंसात्मक होगा, संरचना में उसके परिणामस्वरूप परिवर्तन भी उतने ही आकस्मिक होगें।”
डेहरेनडॉर्फ का कथन है कि सत्ता संरचना में सदैव ही शासक और शासित के सम्बन्ध निहित होते हैं। यह सत्ता-संरचना ट अधिकार तथा कर्त्तव्यों को परिभाषित करती है, दण्डों को निर्धारित करती है तथा अनुरूपता को लागू करती है। डेहरेनडॉर्फ का मत है कि सत्ता-संरचना में सत्ता का सदैव असमान बंटवारा क होता है-जिनके पास अधिक सत्ता होती है वे प्रभुत्वसम्पन्न व शासक बन बैठते हैं जबकि सत्ताहीन या कम सत्ता वाले लोग के अधीनस्थ की स्थिति में होते हैं। प्रभुत्वसम्पन्न कुछ लोगों को वैधानिक अधिकार प्राप्त होता है कि वे अपने अधीनस्थ लोगों न पर शासन करें और उन पर नियन्त्रण रखें। सत्ता के इस प्रकार बंटवारे से समाज में स्वतः ही दो विरोधी समूहों का जन्म, प्रधानता तथा अधीनता की दो स्थितियों के अनुरूप होता है-एक तो वे जो आदेश देते हैं और दूसरे वे जो आदेशों को पालन करते हैं।
डेहरेनडॉर्फ का कथन है कि प्रत्येक सामाजिक संगठन में सत्ता का बंटवारा असमान होने के कारण परस्पर विरोधी स्वार्थ समूहों का निर्माण स्वाभाविक ही है और सत्ता की यह संरचना ही संघर्ष का एक एकमात्र आधार है। इस कारण संघर्ष को सामाजिक जीवन से एकदम मिटा देना या खत्म कर देना असम्भव है। डेहरेनडॉर्फ की मान्यता यह है कि “संघर्ष को अस्थायी रूप से या कुछ समय के लिए दबाया, नियमित निर्देशित एवं नियन्त्रित तो किया जा सकता है, परन्तु न तो कोई दार्शनिक राजा और न ही कोई आधुनिक तानाशाह इसे हमेशा के लिए समाप्त कर सकता है।“ चूंकि सामाजिक संघर्ष स्वयं सामाजिक संगठन की प्रकृति में अन्तर्निहित होता है, इस कारण उन्हें पूरे तौर पर मिटाया नहीं जा सकता, केवल विशेष संदर्भों में उनकी अभिव्यक्तियों का निराकरण किया जा सकता है।
चूंकि सत्ता का असमान वितरण ही संघर्ष का आधारभूत स्त्रोत है, इस कारण वर्ग-संघर्ष के फलस्वरूप होने वाले परिवर्तन वस्तुतः सत्ता-व्यवस्था में परिवर्तन है। संरचना में परिवर्तन उन है लोगों को बदल देने से हो सकता है जो कि प्रभुत्व की स्थिति में हैं या जो सत्ता का केन्द्र हैं, जैसा कि क्रांति के द्वारा सरकार को उखाड़ फेंककर किया जाता है या फिर आपसी समझौते के आधार पर सत्ता को आपस में बांटकर भी सत्ता संरचना का पुनर्वितरण किया जा सकता है (राजनीति में साझा बनाकर)। इस प्रकार का परिवर्तन प्रभुत्व की स्थिति पर बैठे लोगों को न बदलकर भी लाया जा सकता है यदि उदार व अनुकूलनशील शासक वर्ग विरोधी दल के प्रस्तावों व हितों को ध्यान में रखने को इच्छुक हो जैसा कि लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली में होता है।
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