प्रकार्यवादः ब्रोनिसलॉ मैलिनॉस्की (Malinowski’s Functionalism)
मैलिनॉस्की प्रथम सामाजिक-सांस्कृतिक मानवशास्त्री थे जिन्होंने प्रकार्यवादी विचारधारा को व्यवस्थित किया। साथ ही वे ऐसे भी प्रथम मानवशास्त्री थे जिसने किसी अपरिचित संस्कृति का अध्ययन एक लम्बे समय तक उन लोगों के बीच में रहकर किया (सहभागी अवलोकन)। एक निर्जन क्षेत्र में लघु समुदाय की अपरिचित संस्कृति को अत्यंत निकट से देखकर एवं उनके बीच एक लम्बी अवधि तक प्रवास के परिणामस्वरूप ‘संस्कृति’ की अवधारणा के बारे में नवीन विचारों का सृजन उनकी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है। इसीलिए मैलिनॉस्की को सामाजिक सांस्कृतिक मानवशास्त्र में क्षेत्रकार्य की परम्परा का आरम्भ करने का श्रेय भी दिया जाता है। क्षेत्रकार्य के संबंध में उनके विचार तथा उनके क्षेत्र कार्य की कार्यप्रणाली दोनों ही मानवशास्त्र में संस्कृति की आधुनिक अवधारणा के संदर्भ में अत्यधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
मैलिनॉस्की ने प्रशांत महासागर के ट्रॉबियाण्ड द्वीप समूह के जनजातीय समूह के अपने अध्ययनों के अनुभव के आधार पर यह बताया कि आदिम संस्कृतियों के लोगों की भी अपनी मान्यताएं एवं मूल्य होते हैं और इन संस्कृतियों का विश्लेषण उनकी मान्यताओं एवं मूल्यों के आधार पर करना चाहिए। यही विचार आज सांस्कृतिक सापेक्षवाद के नाम से मान्य हो चुका है और मानवशास्त्र में यह स्थापित हो गया है कि अन्य संस्कृतियों के अध्ययन में अध्ययनकर्ता को अपने सांस्कृतिक मूल्यों से स्वतंत्र रहकर ही अध्ययन करना चाहिए।
जनजातीय संस्कृति के अपने प्रकार्यवादी विश्लेषण में मैलिनॉस्की ने संस्कृति को एक पूर्णता के रूप में देखा है और उसके विभिन्न अंगों के बीच प्रकार्यात्मक एकीकरण की अनिवार्यता को स्वीकार किया है।
मैलिनॉस्की के अनुसार किसी संस्कृति के सभी तत्व परस्पर एक-दूसरे से संबंधित होते हैं और उनमें से किसी एक में होने वाला परिवर्तन अन्य तत्वों को प्रभावित करता है। संस्कृति के विभिन्न अंगों के बीच इसी तालमेल अथवा ‘संगति’ को प्रकार्यात्मक समाकलन कहा गया है। इस प्रकार की समाकलन की स्थिति संस्कृति को एक सुसम्बद्ध पूर्णता के रूप में प्रस्तुत करती है। मैलिनॉस्की के अनुसार किसी भी संस्कृति में ऐसा कुछ भी नहीं होता है जो सार्थक रूप से संस्कृति के अन्य तत्वों से किसी प्रकार से सम्बद्ध न हो अथवा उस संस्कृति में उसकी कोई भूमिका न हो। मैलिनॉस्की ने उद्विकासवादियों की ‘सांस्कृतिक जीवाश्मों’ की मान्यता का खण्डन किया तथा स्थापित किया कि संस्कृति में किसी भी तत्व की विद्यमानता उसकी सार्थकता एवं उसके प्रकार्य को प्रमाणित करती है, भले ही हमारा विश्लेषण उसके योगदान या प्रकार्य का स्पष्टीकरण करने में समर्थ न हो।
मैलिनॉस्की के प्रकार्यवादी विचारों में संस्कृति को वृहद् पर्यावरणीय अनुकूलन का साधन माना गया है। मैलिनॉस्की के अनुसार अन्य सभी प्राणियों की भांति मनुष्य के जन्मजात शारीरिक उपागम उसकी जीविता को सुनिश्चित नहीं कर पाते किंतु विकसित मस्तिष्क एवं शरीर के विशिष्ट लक्षणों के परिणामस्वरूप मनुष्य में संस्कृति सृजन की क्षमता विकसित होती है। इसी संस्कृति के द्वारा मनुष्य अपना अनुकूलन सुनिश्चित करता है। अतः संस्कृति मनुष्य के लिए एक साधन होती है जिसका प्रयोग मनुष्य पर्यावरण से अपने अनुकूलन के लिए करता है। अतः संस्कृति का प्रकार्यात्मक अध्ययन, सांस्कृतिक तत्वों का मूल्यांकन एवं उनकी विवेचना सम्पूर्ण संस्कृति के प्रति उनके योगदान के रूप में की जाती है।
मैलिनॉस्की का ‘आवश्यकताओं का सिद्धांत’
मैलिनॉस्की का मानना है कि मनुष्य की मूल जैविकीय आवश्यकताएं संस्कृति के लिए आवश्यक दशाएं निर्धारित करती हैं। सार्वभौमिक स्तर पर सभी संस्कृतियों की कुछ आवश्यकताएं होती हैं तथा मनुष्य की जीविता के लिए इन आवश्यकताओं की पूर्ति अथवा संतुष्टि आवश्यक होती है। मैलिनॉस्की के अनुसार से सामाजिक संस्थाओं के प्रकार्य एवं मनुष्य की इन प्राथमिक जैव-मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं में मूलभूत संबंध होता है।
इस संदर्भ में मैलिनॉस्की ने प्राथमिक जैविकीय आवश्यकताओं और उनके सांस्कृतिक प्रत्युत्तर की एक तालिका प्रस्तुत की जिनको निम्न रूपों में देखा जा सकता है
इस तालिका द्वारा मैलिनॉस्की ने यह प्रदर्शित किया कि किसी भी संस्कृति में अनेक सांस्कृतिक व्यवहारों को जैविकीय एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं से संबंधित किया जा सकता है। किंतु, मनुष्य की सभी आवश्यकताएं केवल जैविकीय अथवा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएं ही नहीं होती। जीवन के लिए अति आवश्यक प्राथमिक जैव-मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संस्कृति स्वयं अपनी कुछ आवश्यकताओं को जन्म देती है। जिन्हें व्युत्पन्न आवश्यकताएँ कहा जाता है। मैलिनॉस्की ने निम्न प्रमुख व्युत्पत्र आवश्यकताएं बताई है.
इन दोनों प्रकार की आवश्यकताओं को संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है
प्रत्येक संस्कृति में पाये जाने वाली इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिऐ मनुष्य अपने प्राकृतिक पर्यावरण के अतिरिक्त साधनों का एक कृत्रिम वातावरण बना लेता है। यही लोगों की संस्कृति होती है। इस संस्कृति को समाकलित करने की दिशा में भी कुछ सांस्कृतिक तत्व क्रियाशील होते हैं। आर्थिक विनिमय के स्वरूप यथा उपहारों एवं अनुष्ठानिक विनियमों में निहित पारस्परिकता तथा धर्म, जादू आदि संस्कृति के ऐसे पक्ष हैं जो कि संस्कृति की समाकलनीय आवश्यकताओं को पूरा कर संस्कृति में एक समाकलित पूर्णता बनाये रखते हैं। सरल से लेकर जटिल सभी संस्कृतियों के विभिन्न तत्व आंशिक रूप से भौतिक संस्कृति तथा आंशिक रूप से सामाजिक रीतियों, रिवाजों एवं विश्वासों आदि के रूप में पाये जाते हैं। मनुष्य इन सभी प्रकार के तत्वों का प्रयोग अपनी जीविता सुनिश्चित करने के लिए करता है। अतः विभिन्न सांस्कृतिक तत्वों के अस्तित्व एवं उनकी सार्थकता को उपर्युक्त आवश्यकताओं के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रयास द्वितीयक या व्युत्पन्त्र आवश्यकताओं को जन्म देते हैं। व्यक्ति संस्कृति का सृजन करते हैं उसे समाकलित स्वरूप प्रदान करते हैं तथा जिसके द्वारा व्यक्तियों की जीविता सुनिश्चित होती है।
मैलिनॉस्की के अनुसार प्राथमिक आवश्यकताएं मूलभूत होती हैं और उनकी संतुष्टि भी अनिवार्य होती है। परन्तु, यह कार्य व्यक्तिगत स्तर पर संभव नहीं होता। अर्थात् इन आवश्यकताओं की पूर्ति सांगठनिक प्रयासों से की जा सकती है जो सभी समाजों में पाये जाते हैं और जिन्हें मैलिनॉस्की ने ‘संस्थाओं’ की संज्ञा दी। उन्होंने कहा कि संस्थाओं की जड़ें मानव स्वभाव की गहराइयों में होती हैं। इस तरह मैलिनॉस्की ने मानव स्वभाव को प्राथमिक जैविकीय आवश्यकताओं के पर्याय के रूप में देखा है और इस प्रकार वे स्पेंसर के उपागम को पुनः स्थापित करते हुए प्रतीत होते हैं।
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