मार्क्स के द्वंदात्मक भौतिकवाद सिद्धांत की भांति ही इतिहास की आर्थिक व्याख्या या ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धांत भी महत्वपूर्ण है ।वास्तव में द्वंदात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत को सामयिक विकास के संबंध में प्रयुक्त करना इतिहास की आर्थिक व्याख्या है ।मार्क्स उन इतिहासकारों से सहमत नहीं है जिन्होंने इतिहास को कुछ विशेष और महान व्यक्तियों के कार्यों का परिणाम मात्र समझा है। मार्क्स का कहना है कि इतिहास की सभी घटनाएं आर्थिक अवस्था में होने वाले परिवर्तनों का परिणाम मात्र है और किसी भी राजनीतिक संगठन का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसके आर्थिक ढांचे का ज्ञान नितांत आवश्यक है ।स्वयं मार्क्स के शब्दों में सभी सामाजिक, राजनीतिक, तथा भौतिक संबंध, सभी धार्मिक तथा कानूनी पद्धतियां, सभी भौतिक दृष्टिकोण जो इतिहास के विकास क्रम मैं जन्म लेते हैं , वे सब जीवन की भौतिक अवस्था से उत्पन्न होते हैं।
मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या
मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत के प्रमुख पहलुओं को हम इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं-
1) मानव इतिहास का निर्माता है। वह इतिहास का निर्माण तभी कर सकता है ।जब उसका जीवन और अस्तित्व बना रहे मानव के अस्तित्व और जीवन के लिए यह जरूरी है कि उसे भोजन वस्त्र और आवास की सुविधाएं प्राप्त हो जिन्हें मार्क्स आवश्यक भौतिक मूल्य कहता है।
2) भोजन, वस्त्र एवं आवास अर्थात भौतिक मूल्यों को जुटाने के लिए मानव को उत्पादन करना होता है।
3) उत्पादन का कार्य उत्पादन की प्रणाली पर निर्भर है ।उत्पादन प्रणाली में हम उत्पादन के औजार श्रम उत्पादन की शक्ति कौशल आदि को गिनते हैं।
4) एक उत्पादन प्रणाली एक विशेष प्रकार के संबंधों को जन्म देती है जो दूसरे प्रकार की उत्पादन प्रणाली से भिन्न होते हैं ।उत्पादन प्रणाली और उत्पादन शक्ति ही मानव के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक व बौद्धिक जीवन की क्रियाओं को तय करती है, उसी पर मानव की सरकार, कानून कला, साहित्य, धर्म का स्वरूप निर्भर होता है।
5) जब उत्पादन प्रणाली और उत्पादन शक्ति में परिवर्तन होता है ।तो मानव की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, बौद्धिक सभी क्रियाओं में परिवर्तन आ जाता है। यही कारण है कि जब हस्त चलित यंत्र थे ।तो सामंतवादी समाज था और जब वाष्प चलित यंत्र आए तो पूंजीवादी समाज ने जन्म ले लिया ।
6) उत्पादन प्रणाली का उत्पादन की स्थिति में परिवर्तन द्वंद्ववाद की प्रक्रिया से होता है ।और तब तक होता है जब तक कि उत्पादन के सर्वश्रेष्ठ अवस्था नहीं आ जाती ।यह अवस्था समाजवाद की स्थापना पर ही आती है ।जो इतिहास के विकास का अंतिम चरण है। इस तरह मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद के शब्दों में एक आशावादी सिद्धांत है। जिसमें मानव की विजय होती है।
7) इतिहास का काल विभाजन
मार्क्स यह मानते हैं कि इतिहास के प्रत्येक अवस्था वर्ग संघर्ष का इतिहास है। इतिहास की प्रत्येक घटना, प्रत्येक परिवर्तन आर्थिक शक्तियों का परिणाम है । मार्क्स उत्पादन संबंधों एवं आर्थिक प्रणालियों के आधार पर इतिहास को 5 युग में बांटा है
1) आदिम साम्यवाद = इसे सामाजिक विकास की प्रथम अवस्था कहा है इस अवस्था में उत्पादन के तरीके बहुत सरल तथा अविकसित थे एवं उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व हुआ करता था
2 ) दास अवस्था – कार्ल मार्क्स के अनुसार सामाजिक विकास की दूसरी अवस्था दास अवस्था थी ।धीरे-धीरे समाज की भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ। लोगों ने कृषि एवं पशुपालन करना आरंभ किया। निजी संपत्ति के विचार का उदय हुआ और उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व प्रारंभ हुआ ।समाज की स्वतंत्रता और समानता समाप्त हो गई। अब समाज स्वामी और दास के दो अलग-अलग वर्ग में विभाजित हो गया और शोषण प्रारंभ हुआ।
3) सामंती अवस्था– इस अवस्था में भूमि उत्पादन का मुख्य साधन बनी और भूमि के बड़े से भाग पर एकाधिकार स्थापित करने की प्रवृत्ति बढ़ी। नवीन प्रकार के उत्पादन संबंध स्थापित हुए, जिसमें भूमि तथा उत्पादन के साधनों के स्वामी सामंत होते थे और उन पर खेती आदि का कार्य किसान और श्रमिक करते थे।
4) पूंजीवादी अवस्था– पूंजीवादी व्यवस्था व आर्थिक और राजनीतिक प्रणाली है 18 वी शताब्दी के यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद विकसित हुई इस अवस्था में पूंजीपति उत्पादन के साधनों को स्वामी होता है लेकिन वस्तुओं के उत्पादन का कार्य श्रमिकों द्वारा किया जाता है श्रमिकों के वास उत्पादन के साधन ना होने के कारण उनकी वास्तविक स्थिति दासो से अच्छी नहीं होती और वे पूंजीपतियों के शोषण का शिकार होते हैं इस शोषण के परिणाम स्वरूप दो वर्गों ( बुर्जुआ शोषक वर्ग और सर्वहारा शोषित वर्ग) के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच कर पूंजीवाद को समाप्त कर देती है।
5) साम्यवादी अवस्था – पूंजीवादी तत्वों के पूर्ण विनाश के पश्चात मानवीय इतिहास की अंतिम अवस्था साम्यवादी अवस्था या राज्यविहीन और वर्ग विहीन समाज की अवस्था आएगी। यह समाज में शोषक और शोषित इस प्रकार के दो वर्ग नहीं वरन् केवल एक वर्ग श्रमिको का वर्ग होगा। इस समाज के अंदर वितरण का सिद्धान्त होगा ” प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करे और उसे आवश्यकता के अनुसार के अनुसार प्राप्ति हो ।”
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