कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष सिद्धांत (karl marx’s theory of class struggle
कार्ल मार्क्स की विचारधारा में वर्ग संघर्ष की धारणा को विशेष महत्व प्रदान किया गया है। मार्क्स ने अपने इस वर्ग संघर्ष के सिद्धांत को ऐतिहासिक भौतिकवाद के पूरक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया है और इसको उत्पादन प्रणाली में निहित अंतर्विरोध की अभिव्यक्ति के रूप में दर्शाया है।
मार्क्स ने इस संबंध में साम्यवादी घोषणा पत्र में लिखा है कि “मानव समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है।” वह वर्ग को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि यह एक ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो उत्पादन की किसी विशेष प्रक्रिया से संबंधित हो और जिनके साधारण हित एक हो। मार्क्स के अनुसार उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व एवं वंचित के आधार पर अब तक का मानव समाज परस्पर विरोधी हितों वाले दो वर्गों में विभक्त है –
1) उत्पादन के साधनों का स्वामी वर्ग
2) उत्पादन के साधनों से वंचित वर्ग
दोनों वर्गों में स्वामी वर्ग द्वारा सदैव वंचित वर्ग का शोषण किया जाता रहा है। शोषण को लेकर दोनों वर्ग परस्पर संघर्षरत रहे हैं। संघर्ष की यह प्रक्रिया दास युग में दास एवं मालिक के बीच सामंत युग में सामंत एवं अर्ध दास किसानों के बीच,पूंजीवादी युग में पूंजीपति एवं श्रमिकों के बीच चलती रही है। इसलिए मार्क्स कहता है कि “अब तक में मानव समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है।”
राल्फ डेहरेनडार्फ का संघर्ष सिद्धांत
मार्क्स ने इस वर्ग संघर्ष के लिए संपत्ति संबंधी एवं इसमें निहित शोषण को उत्तरदाई ठहराते हुए कहा है कि इतिहास की पूर्व अवस्था (आदिम साम्यवाद) में उत्पादन शक्तियां सरल थी । इस समय केवल जीवन निर्वाह उत्पादन होता था और निजी संपत्ति का अभाव था फलतः न वर्ग था और ना ही वर्ग संघर्ष था परंतु उत्पादन की शक्तियों में विकास के साथ ‘अतिरिक्त उत्पादन ‘ संभव हुआ और निजी संपत्ति की धारणा सामने आई। फलतः समाज परस्पर विरोधी हित वाले दो समूहों में विभक्त हो गया दास एवं मालिक और वर्ग शोषण तथा वर्ग संघर्ष का इतिहास प्रारंभ हुआ। पुनः उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के साथ समाज सामंत योग एवं पूंजीवादी युग के रूप में विकसित हुआ। फिर भी वर्ग शोषण एवं वर्ग संघर्ष बना रहा क्योंकि युग परिवर्तन के बावजूद निजी संपत्ति का अस्तित्व विद्यमान रहा ।
मार्क्स का मानना है कि निजी संपत्ति के अधिकार के कारण पूंजीवादी युग में समाज परस्पर विरोधी हितो वाले दो वर्गों में विभक्त है- पहला पूंजीपति वर्ग और दूसरा श्रमिक वर्ग पूंजीपति और श्रमिक दोनों को एक दूसरे की जरूरत होते हुए भी इनके हितों में परस्पर विरोध है । पूंजीपति कम से कम मजदूरी देना चाहता है जिससे उसे अधिक से अधिक लाभ हो और मजदूर अधिक से अधिक मजदूरी लेना चाहता है । अतः विरोधी हितों के कारण दोनों में संघर्ष आरंभ हो जाता है ।यही वर्ग संघर्ष की बुनियाद है और इसी कारण वर्ग संघर्ष हमेशा से चला आ रहा है ।
मार्क्स और एंजिल्स साम्यवादी घोषणा पत्र में लिखते हैं कि ” स्वतंत्र व्यक्ति तथा दास अमीर तथा सामान्य जन भूस्वामी तथा भू दास श्रेणीपति तथा दस्तकार संक्षेप में उत्पीड़न तथा उत्पीड़ित निरंतर एक दूसरे का विरोध करते तथा अनवरत कभी लुक छिपकर तथा कभी खुलकर संघर्ष चलाते रहे हैं। इस संघर्ष के परिवर्ती हर बार या तो समाज के क्रांतिकारी पुनर्निर्माण में हुई है या संघर्ष करने वाले वर्गों के सर्वनाश में।”
वर्ग संघर्ष की अपनी इस धारणा के आधार पर कार्ल मार्क्स पूंजीवाद के अंत के संभावना व्यक्त करता है। मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी अवस्था में ही स्वयं अपने विनाश के बीज निहित हैं। पूंजीपति अधिक उत्पादन में विश्वास करते हैं जिसका परिणाम थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में धन का एकत्रित होना होता है।
इस परिणामस्वरूप पूंजीपतियों की संख्या में निरंतर कमी और श्रमिकों की संख्या में वृद्धि होती है। पूंजीपति अपनी आर्थिक लाभों के कारण एक ही स्थान पर अनेक उद्योगों की स्थापना में विश्वास करते हैं। उद्योग के इस स्थानीयकरण के कारण श्रमिकों में वर्गीय चेतना का निरंतर विकास होता रहता है। उनमें एकता उत्पन्न होती है और इसके आधार पर पूंजीपतियों का मुकाबला करने में सफल हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त उद्योगों में उत्पादन की मात्रा अधिक बढ़ जाने के कारण इसकी खपत के लिए दूसरे देशों में मंडियां खोजी जाती है विकसित पूंजीवादी देशों के पूंजीपति दूसरे देशों में भी अपनी पूंजी लगाते हैं।
इस प्रकार पूंजीवाद विश्वव्यापी और अंतरराष्ट्रीय रूप धारण कर लेता है। पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम बार-बार आर्थिक संकटों की उत्पत्ति है जिसके परिणाम स्वरूप पूंजी पतियों की स्थिति असुरक्षित हो जाती है। सभी देशों के श्रमिक समान रूप से पूंजीवाद के शोषण और अत्याचारों से पीड़ित होते हैं। अतः श्रमिक आंदोलन बहुत अधिक सुसंगठित हो जाता है और अंतरराष्ट्रीय ग्रहण कर लेता है। इस सुसंगठित श्रमिक आंदोलन के सामने टिक नहीं सकता और इस प्रकार पूंजीवाद स्वयं अपने विनाश का कारण बन जाता है। श्रमिक पूंजी पतियों से पूंजी और उनके सहायक वर्ग से सत्ता छीन लेने के उपरांत “सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व” स्थापित करते हैं।
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