सामाजिक समूह का अर्थ, परिभाषा और विशेषताएं

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सामाजिक समूह का अर्थ परिभाषा और विशेषताएं | Samajik samuh ka arth paribhasha aur vishestaye

परिचय – 

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समाजशास्त्र के अंतर्गत समूह एक बहुत ही महत्वपूर्ण अवधारणा है। इसकी महत्ता इतनी अधिक है कि बोगार्डस, जानसन आदि समाजशास्त्रियों ने समाजशास्त्र को सामाजिक समूहों के अध्ययन का विषय कहा है।

सामाजिक समूह का अर्थ एवं परिभाषा (MEANING AND DEFINITION OF SOCIAL GROUP)


सामाजिक समूह से तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों के संकलन से है जो सामान्य उद्देश्यों या लाभों की पूर्ति हेतु परस्पर संबंध की स्थापना करते है और अपने व्यवहार द्वारा एक दूसरे को प्रभावित करते है। 

उदहारण – मजदूर संगठन, राजनीतिक दल

मैकाइबर एवं पेज के अनुसार , “समूह से हमारा तात्पर्य व्यक्तियों के किसी भी ऐसे संग्रह से है जो एक-दूसरे के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं।”


ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार, “जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति एक-साथ मिलते और एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं तो वे एक समूह का निर्माण करते हैं।


क्यूबर के अनुसार – परस्पर संचारशील व्यक्तियों को समूह कहते है।


सामाजिक समूह की विशेषताएं 

सामाजिक समूह की विशेषताएं इस प्रकार हैं – 

सामाजिक समूह की विशेषताएं | Samajik samuh ki vishestaye

(1) व्यक्तियों का समूह – 

किसी भी समूह का निर्माण एक अकेले व्यक्ति द्वारा नहीं हो सकता। इसके लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना आवश्यक है। 


(2) कार्य विभाजन- 

प्रत्येक समूह का निर्माण किसी-न- किसी उद्देश्य के कारण ही होता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए समूह के सदस्यों में कार्य-विभाजन कर दिया जाता है।


(3) सामान्य रुचि – 

किसी भी समूह की स्थापना उन्हीं व्यक्तियों द्वारा होती है जिनकी रुचि एवं हित सामान्य हों। विरोधी हितों वाले व्यक्ति समूह का निर्माण नहीं कर सकते।


(4) समूह में एकता – 

कोई समूह, समूह के रूप में उसी समय तक कायम रह सकता है जब तक उसके सदस्यों में एकता की भावना पायी जाती हो। इसके अभाव में समूह टूट जाता है। अतः सदस्यों में एकता एवं ‘हम की भावना’ होना आवश्यक है।




(5) ऐच्छिक सदस्यता – 

समूह की सदस्यता ऐच्छिक होती है। व्यक्ति सभी समूहों का सदस्य नहीं बनता वरन् उन्हीं समूहों की सदस्यता ग्रहण करता है जिनमें उसके हितों, आवश्यकताओं एवं रुचियों की पूर्ति होती हो।


(6) स्तरीकरण – 

समूह में सभी व्यक्ति समान पदों पर नहीं होते वरन् वे अलग-अलग प्रस्थिति एवं भूमिका निभाते हैं। अतः समूहों में पदों का उतार-चढ़ाव पाया जाता है। पदों के उच्चता एवं निम्नता के इस क्रम को ही संस्तरण कहते हैं।

(7) सामूहिक आदर्श – 

प्रत्येक समूह में सामूहिक आदर्श एवं प्रतिमान पाए जाते हैं जो सदस्यों के पारस्परिक व्यवहारों को निश्चित करते हैं एवं उन्हें एक स्वरूप प्रदान करते हैं। प्रत्येक सदस्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह समूह के आदर्शों एवं प्रतिमानों जैसे प्रथाओं, कानूनों, लोकाचारों, जनरीतियों, आदि का पालन करे।




(8) स्थायित्व – 

समूह में थोड़ी-बहुत मात्रा में स्थायित्व भी पाया जाता है। यद्यपि कुछ समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के बाद ही समाप्त हो जाते हैं, फिर भी वे इतने अस्थिर नहीं होते कि आज बने और कल समाप्त हो गए।


(9) ढांचा – 

प्रत्येक समूह की एक संरचना या ढांचा होता है अर्थात् उसके नियम, कार्य-प्रणाली, अधिकार, कर्तव्य, पद एवं भूमिकाएं, आदि तय होते हैं और सदस्य उन्हीं के अनुसार आचरण करते हैं।


(10) सामाजिक सम्बन्ध – 

समूह में केवल व्यक्तियों का होना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उनके बीच सामाजिक सम्बन्धों का होना भी अनिवार्य है।

(11) जागरूकता – 

मैकाइवर एवं पेज ने पारस्परिकता एवं जागरूकता को समूह के आवश्यक तत्व के रूप में स्वीकार किया है। एक समूह के सदस्यों में परस्पर सहानुभूति एवं सहयोग की भावना पायी जाती है।

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